अगर कुछ जलाना ही है तो जला दो मुझे
जाति-धर्म के इस रिवाज़ से हटा दो मुझे
अगर नहीं जगह मेरे लिए अब समाज में
किसी पत्थर जैसे दीवार में लगा दो मुझे
फीका हो गया हूँ तुम्हारी चमक के सामने
बुझते सूरज के साथ-साथ ही बुझा दो मुझे
कहाँ तक ढो पाओगे मेरे विरोधी विचार यूँ
उफनते नदी पर टूटे पुल सा बिछा दो मुझे
मैं सच हूँ ,ज्यादा देर तक सह नहीं पाओगे
अपने घर से किसी लाश सा उठा दो मुझे