अनुकम्पा पुरूस्कार

कर रहे हैं बङा इतराज़, पुरूस्कारों पर कुछ बेकल
ये कैसा हल्ला हो रहा है, मेरे वतन में आजकल

जिन्हें अखबार लिखता था, कलम-ऐ-अकबर
बङा ही कमजोर निकला, उनका दिले-असल

सीने से लगाए रहा जमाना, जिनके अल्फाज़
वो बख्शीश में लौटा रहे हैं, बेआबरू से पल

बेवजह शोर-शराबा तो, किया करते हैं जाहिल
कुछ तो कर गौर इस बेवकूफी पर ऐ फ़ज़ल

लौटा तो रहे हो, मोहब्बत हमारी ऐ आक़िलों
बरसों लगेंगे, हमें इस चोट से होने में मुक्कमल

आजमाइशे इंसानियत को ऐसा तमाचा ना मारो
यूं बदगुमानियो से, कभी निकला नही करते हल

इश्फ़ाक़ ओ इश्रत मिलती रही जब तक हाकिमों की
उस वक्त क्या जली ना थी, किसी गरीब की फसल

अक्सर जंजीर-ऐ-कलम, बन जाती है हुकूमतें
ज्यादा बेहतर है, कि जो तूम रहो इसमें बेदखल

जिन शख्सियतों के देखा करता था ख्वाब "उत्तम"
है शर्मिन्दा, आज उनको लिखते हुए नसीहते-गजल

बेकल = बैचेन
दिले-असल = आंतरिक सच्चाई
फ़ज़ल = सुबुद्धि
आक़िल = बुद्धिमान
इश्फ़ाक़= अनुकम्पा
इश्रत= मनोरंजन


तारीख: 15.06.2017                                    उत्तम दिनोदिया









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