यकीन, इंसानियत पे

  आज के, इस दौर में, जरा  सोचे  क्यों, बंट रहा इंसान है,
प्यार, मोहबत  ही तो  आखिर बस इंसान की पहचान है,

कैसी मची है ये, आपा धापी, जिसमे, खो गया ईमान है,
भाई चारे का, यूँ हरेक दिल में, यंहा आज भी अरमान है,

बहक चुके है अब भी मासूम, कई जो कि कुछ नादान है,                  
मजहब के नाम पे जो बांटे, उसको तो जानिए,शैतान है ,

आँखे खोलो और देखो कितनी उजड़ी बस्तियां वीरान है,    
एक जैसी रूह है सबकी,अपनी बस एक जैसी ही जान है,

फर्क ना दिल में रख कि भाई चारे पे टिकी है दुनिआ तेरी,
जुबान जुदा हो सकती है, दीन ओ मजहब इक सामान है,

आज के, इस दौर में, जरा, सोचे  क्यों, बंट रहा, इंसान है,
प्यार, मोहबत  ही तो, आखिर  बस इंसान की पहचान है !!


तारीख: 19.06.2017                                    राज भंडारी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है