तबस्सुम लबो पर सजाएँ कहाँ तक
निगाहें ये उनसे चुराएँ कहाँ तक।
कभी ना कभी तो बताना ही होगा
ये ज़स्बात दिल मे दबाएँ कहाँ तक।
मुहोब्बत की राहे ये आँसा नहीं है
चरागे मुहोब्बत जलाएँ कहाँ तक
वो दिल से नहीं बस जुबाँ का है कड़वा
मगर दिल को ये हम बताएँ कहाँ तक।
झुके है मुहोब्बत मेंं हर मर्तबा हम
बताओ कि सर हम झुकाएँ कहाँ तक।
जिन्हे झूठ सुनने की आदत पड़ी हो
उन्हें सच से अवगत कराएँ कहाँ तक।