आईपीएल, मनोरंजन और भारतीय दर्शन

आईपीएल की बोली लग चुकी है, खिलाडी बिक चुके है, बस अब खेल का बिकना बाकी है। मज़मा लग चुका हैै, खिलाडी मुजरा करने को तैयार है। बाज़ारीकरण के इस दौर में "आई-पिल" और "आईपीएल" दोनों का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है क्योंकि दोनों ही कम समय में "सुरक्षित" मनोरंजन सुनिश्चित करते है। विकासशील देश के लिए मनोरंजन आवश्यक है ताकि विकसित बनने में आने वाली बाधाओ से लड़ने का माद्दा बना रहे। 

आईपीएल "पैसा फ़ेंक, तमाशा देख" का ही कॉर्पोरेट स्वरुप है और कॉर्पोरेट का रेट हर साल बदलता रहता है। डिमोनेटाईजेशन के बाद भले ही (पुराने) 500 और 1000 के नोट बंद हो गए हो लेकिन आईपीएल में "खोटे-सिक्केे" आज भी चलते है। खिलाड़ियों की बोली "बेस -प्राइस" से शुरू होती है, इसलिए ऐसा नहीं है कि केवल "बेबी" को ही "बेस" पसंद होता है।

उन खिलाडियो पर ज़्यादा दांव लगाया जाता है जो मैदान में चौके/छक्के लगा सके और मैच के बाद होने वाली "लेट-नाईट पार्टीज" में ठुमके लगा सके। हर टीम सफलता पर सवार होने के लिए लंबी रेस के घोड़े ढूंढती है। लंबी रेस के घोड़ो की बोली भी बहुत लंबी लगती है। बोली लगाकर "धनबल" से घोड़ो को "अस्तबल" के बाहर निकाला जाता है।

क्रिकेट टाइमिंग का खेल है इसलिए हर उभरते खिलाडी के लिए आवश्यक है की उसे सही समय पर सही टीम से कॉन्ट्रैक्ट मिल जाये। देश के लिये खेलने का मौका मिले या ना मिले पर आईपीएल में किसी प्रदेश के लिये चौका लगता रहे तो घर का "चौका-चूल्हा" बिना सब्सिडी वाले सिलिंडर के भी चलता रहता है। इस खेल में खिलाडी अगर अपनी फॉर्म तलाश कर ले तो फिर सभी कंपनीयो के विज्ञापन उन्हें खुद-ब-खुद तलाश कर लेते है।

"साम-दाम-दंड-भेद" के इस खेल में देशी-स्वदेशी का फर्क नहीं किया जाता है। मनोज (भारत)कुमार जी ने बरसो पहले ही बता दिया था की, "काले-गौरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है" और इसी दिल के नाते चलते इस "खेले" में मंहगी चीयर लीडर्स का इंतज़ाम किया जाता है ताकि सबका दिल लगा रहे है।क्योंकि दिल तोड़ने के लिए तो मैच फिक्सिंग है ही। मैदान में बल्ले से और मैदान के बाहर चीयर लीडर्स की "बल्ले-बल्ले" से आईपीएल चलता रहता है।

पुराना भारतीय दर्शन है कि जो भी होता है वो अच्छे के लिए ही होता है और पहले से निश्चित होता है। मैच फिक्सिंग भी इसी दर्शन को फॉलो करती है क्योंकि इसमें मैच का नतीजा पहले से तय होता है और उस नतीजे से किसी ना किसी का तो भला होता ही है। क्रिकेट, बैट-बॉल के साथ साथ अनिश्चिचिताओ का भी खेल है और टी-ट्वेंटी स्वरुप में यह अनिश्चिचिता और भी गहरी हो जाती है इसलिए खिलाडियों पर पैसा लगाने वाले  टीम मालिक को यह पूरा हक़ है कि वो इन अनिश्चितता की जोखिम को हटाकर अपने पूंजीनिवेश पर "रिटर्न" सुनिश्चित करे। यहीं व्यापार का नियम है। इसमें खिलाडी तो माध्यम मात्र होते है।जीत-हार के लिए केवल अच्छे प्रदर्शन पर निर्भर रहना  खतरे से खाली नहीं होता है और  बुरे प्रदर्शन पर निर्भर रहे तो ये "रिटर्न" से खाली नहीं रहता है।

मैच फिक्सिंग खिलाडियो के साथ साथ दर्शको के स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है क्योंकि की अगर अंत तक मैच का परिणाम पता ना हो तो दर्शको का रक्तचाप बढ़ने और हृदयघात का खतरा बढ़ जाता है और इसके विपरीत अगर पहले से परिणाम फिक्स हो तो दर्शक भी बिना किसी टेंशन के अंत तक मैच एन्जॉय कर सकते है। इस तरह से आईपीएल देशवासियो का मनोरंजन तो करता ही है साथ-साथ उनके स्वास्थ्य का भी ध्यान रखता है। 

मैच फिक्सिंग और अन्य कई तरह की बुराईया घुसने के बाद भी आईपीएल के प्रति दर्शको का उत्साह कम ना होना इस बात का परिचायक है कि हम भारतीय केवल बुराई से नफरत करते है बुरा करने वालो से नहीं। इस तरह से घोर पूंजीवादी और बाज़ारवादी उत्पाद आईपीएल भी ऐसे महत्वपूर्ण भारतीय दर्शनो को ज़िंदा रखने में अपनी महती भूमिका निभा रहा है।


तारीख: 18.06.2017                                    अमित शर्मा 









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