आग

 

"माँ बहुत भूख लगी है", कहते हुए मुन्नी चूल्हे के सामने आ बैठी। चूल्हे से निकलते ताप में हाथ सेंकते हुए माँ से बोली, "माँ, बड़ी कॉलोनियों वाले घरों में तो चूल्हे होते ही नहीं है, वो लोग हाथ कैसे सेकते होंगे? बहुत ठंड लगती होगी ना उन्हें ?" माँ ने कोई उत्तर नहीं दिया।

तवा चूल्हे से उतर चुका था, पर मुन्नी की मासूमियत भरी बातें जारी थीं।

"मुझे आग बहुत अच्छी लगती है, सर्दी तो पास ही नहीं आती आग के।"

मुन्नी 10 साल की बालिका थी, घर में सबसे छोटी। अपने माँ-बाप और भाई-बहिनों के बड़े परिवार के साथ झुग्गी बस्ती में एक घर उसका भी था। सर्दी से बचने का परिवारों के पास एक ही साधन था, चूल्हा और चूल्हे की आग।

मुन्नी ने फिर पूछा, "माँ पिछले महिने हमारी बस्ती में इतने नेता लोग आते थे, कहते थे हमें कंबल देंगें। माँ हमारा कंबल कब मिलेगा?"

"कंबल का नेता लोग ही जानें, सर्दी भी तेज़ हो गयी है, किसी को सुना भी नहीं की कंबल मिला हो, पर वोट दिया है तो कंबल भी मिलेगा ही।" माँ ने थाली में दाल परोसते हुए जवाब दिया। खाना खाकर मुन्नी अंगार की हल्की सी गर्माहट को महसूस करते हुए सो गई।

"ये शोर शराबा कैसा?" मुन्नी के पिताजी आंख मलते हुए उठ खड़े हुए।

बाहर निकल कर देखा तो उनके होश उड़ गये। दौड़कर अंदर गये, पूरे परिवार को जगाया, सभी को बाहर ले आए। बस्ती में आग लगी थी। चार दिन पहले सरकारी नोटिस आया था बस्ती खाली करने का, शायद अब अंजाम दिया गया था। इससे पहले कि आग उनकी झुग्गी तक पहुंचे माँ-पिताजी जो थोड़ा बहुत संभव हो सकता था सामान लेने चले गए।

मुन्नी अपने भाई-बहिनों के साथ बाहर खड़ी आग को देख रही थी। उसने शायद आग का यह रूप पहली बार देखा था। आग के जिस रूप से मुन्नी परिचित थी उससे कहीं ज़्यादा गर्मी थी इस आग में, पर फिर भी ये आग अब कई ज़िंदगियाँ ठंडी करने वाली थी।


तारीख: 10.06.2017                                    राजेंद्र धायल









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है