बांध


     डोमी बडी सावधानी से पेड पर चढ रही थी, वो उस पेड की सबसे उँची टहनी पर पहोचना चाहती थी। जुरबी नीचे खडी थी, वो बार-बार उससे पुछ रहीं थी कुछ दिखा-कुछ दिखा... डोमी बोली हाँ.. वो मशीने अब महादेव पहाडी के पास पहुँच गई है, पास ही कुछ झोपडीयाँ भी दिखाई दे रही है। ईतने में एक जोर का हाथ जुरबी की पीठ पर पड़ा, जुरबी हडबडाई ये जंगुबाई का हाथ था.. जो रोज़ नदी से एक लोटा पानी लाकर ईस पविञ पेड़ पर चढाय़ा करती। वो चिल्ला रही थी.. ये आवारा लड़कियाँ बिडी पत्ता तोड़ने के बहाने जंगल में आती है और बड़ा-देव पर चढ़ती है। अरी पागलों बड़ा-देव पर चढ़ना तो क्या इन्हें छुना भी मना है। देखना एक दिन बड़ा-देव सबको ड़ुबा देगा,स्वंय भी पानी में समा जाएगा, ईनकी असली ज़गह पानी में है,ये पानी के देवता है,ये पानी में रहते है...... जंगुबाई चिल्ला रही थी। डोमी और जुरबी अपने बिडी पत्तो को समेटकर गाँव की ओर भाग रहीं थी.. ये मध्य भारत के घनघोर जंगलों में बसा परसी गाँव था। 


     बीस-तीस घरों का एक आदिवासी गाँव था परसी। जंगल ही ईनका पालनहार था। जीने के लिये लगनेवाली सारी आवश्यकताओं को जंगल पुरा करता था, बाकी का भार पास ही बहनेवाली नदी कल्यानी ने उठा रखा था, और ईन दोंनो(जंगल और नदी) का पुर्ण नियंञण एक विशाल बरगद़ के वृक्ष बड़ा-देव के पास था।जो कथित तौर पर ईन आदिवासीयों का कुल देवता था और जंगुबाई के अनुसार नदी कल्यानी और बड़ा-देव पति-पत्नी थे, ईन दोनों का मिलना तय था, इसलीए जंगुबाई रोज़ एक लोटा नदी का जल बड़ा-देव पर चढाती। वो अक्सर कहती की एक ना एक दिन कल्यानी और बड़ा-देव ज़रुर मिलेंगे। जंगुबाई गाँव की देवरी (पुजारिन) थी, और ऐसा माना जाता था की कल्यानी और बड़ा-देव उससे बातें करते है।
      जंगुबाई बड़े गुस्से में गाँव में दाखिल हुई वो सीधे भीवसेन के घर गई। भीवसेन गाँव का प्रधान था।जंगुबाई को देखते ही भीवसेन बोला– जय सेवा माई। जंगुबाई बोली- जय सेवा। तु आज शाम सब गाँव वालों को परसी पेन के मंदिर के पास बुला मुझे कुछ बात करनी है। 


शाम को पुरा गाँव मंदिर के ओसारे पर जमा था। जंगुबाई तमतमाते हुए बोली– डोमी बड़ा-देव पर चढ़ती है। ये एक गंभीर बात थी, बड़ा-देव पविञ पेड़ था,उन पर चढ़ना तो क्या छुना भी मना था। वहाँ इकठ्ठा सभी लोगों की आँखे डोमी पर टिक गई। डोमी ने बड़ा-देव पर चढ़ने की बात मान ली। 
भीवसेन- बड़ा-देव पर चढ़ने की ज़रुरत क्या है? 
डोमी- वहाँ से कुछ दिखता है।
भीवसेन-क्य़ा?
डोमी- बड़ी-बड़ी मशनरी,गाड़ियाँ,तंबु,बाहरी लोग....
भीवसेन- कहाँ पर है ये सब?
डोमी- महादेव पहाडी के पास।
    ये अनोखी बात थी, भीवसेन ईस बात की पुष्टी करना चाहता था। अगले दिन भीवसेन कुछ लोगों को साथ लेकर पहाड़ी के पास गया। वहाँ कुछ सरकारी आदमी मोजमाप कर रहें थे। उनसे बात करने पर पता चला की सरकार कल्यानी नदी पर बाँध बनाना चाहती है, जिससे शहरी लोगों को पानी मिलता रहें। बाँध के बनवाने के लिए जो गाँव खाली करवाने थे उनमें परसी गाँव भी था। परसी गाँव से आगे नदी को रोककर बाँध बनाने की योजना थी। भीवसेन ने आकर ये सारी बातें गाँववालों को बताई। गाँववाले सकते में थे।


     अगले दिन तहसिल के कुछ अधिकारी गाँव में आए,वे आदिवासीयों को जंगल छोड़ने के फायदे गिना रहे थे। उन्हें अच्छे-घर,रोज़गार,अच्छा स्वास्थ्य,बच्चों की शिक्षा,बिज़ली और साफ़ पानी का प्रलोभन दे रहें थे। जंगल में रहकर वो किस तरह आधुनिक समाज से पिछड़ गए है ईसकी भी याद दिला रहे थे। पर जंगल का ये विर जंगल छोड़ने को तैय्यार नही हुए। सरकारी अधिकारीयों का लहजा अब धमकी भरा हो गया था। वे कह रहें थे, सरकार के आगे उनकी एक नहीं चलेगी, सरकार पुलिस का सहारा लेगी, ये जंगल सरकारी संपत्ती है, तुम्हारे पास कोई दस्तावेज़ भी नहीं है, तुम्हें हटना ही होगा। विरोध किया तो मारे जाओगे, जेल जाओगे। इन धमकियों का भी कोई असर आदिवासीयों पर नहीं हुआ।
     धमकियों से बात ना बनते देख सरकार ने निहत्थे आदिवासीयों पर बलप्रयोग का सहारा लिया। सरकार ने जंगल में पहरा लगा दिया, बिडी पत्ता तोड़ने पर पाबंदी लगा दी। बिड़ी बनाने का व्यवसाय ठप्प हो गया। पर अपने वारिसों का खयाल जंगल अब भी रख रहा था वो आदिवासीयों की सिमीत सी आवश्यकताओं को पुरा कर रहा था। बाँध का काम अब शुरु होने पर ही था जिसके लिए परसी गाँव खाली करना ज़रुरी था।


     अब अधिकारीयों ने अपना रौद्र रुप धारण किया। एक सुबह बड़ी-बड़ी मशीनों के साथ तोड़ू दस्ता परसी गाँव की तरफ बढ़ना शुऱु हुआ। आदिवासी उसका रास्ता रोकने लगे, पेडो को काटकर गिराने लगे, तीर-पत्थर बरसाने लगे। ईनसे भी जब वो दस्ता नही रुका तो जंगल फिर एक बार आदिवासीयों के बचाव में सामने आया और किसी ने मधुमक्खी का छत्ता ऊड़ा दिया.... बस फिर वो दस्ता वापिस लौट गया।


अगली दोपहर तहसिल के एक अधिकारी जो भीवसेन के परिचीत थे गाँव में आए। ये वो ही अधिकारी थे जिनकी सहायता से भीवसेन गाँव का विकास करवाना चाहता था, ईसीलिए आदिवासीयों के आधाऱ कार्ड बनवाए गए थे,उनका स्वास्थ्य परीक्षण करवाया जाता और कई ऐसी योजनाऐं भी गाँव में लाई गई थी जो काग़जों में पुरी हो गई थी किंतु ज़मीन पर नहीं। उस अधिकारी और भीवसेन के बीच बंद कमरें में करीब एक घंटा बातचीत हुई। वे अधिकारी जब बाहर निकले तो उनके चेहरें पर एक विजयी मुस्कान थी, ईन आदिवासीयों को देखकर वे ऐसे मुस्काये मानो उन्होंने युध्द जित लिया हो... शाम गहराने लगी थी,गाँव के मध्य परसी पेन के मंदिर का दिया जगमगा रहा था, पर अंधकार कुछ ज्यादा ही था.. आज अमावस की रात थी।
       अगली सुबह सब आदिवासी मंदिर के पास जमा थे, भीवसेन प्रधान द्वारा आननफानन में एक सभा बुलाई गई थी। भीवसेन और जंगुबाई मंदिर के चबूतरे पर बैठे थे, बाकी सब उनके सामने नीचे बैठकर बड़ी व्याकूलता से कुछ सुनने की प्रतिक्षा कर रहें थे। कुछ देर की गंभीर शांति के बाद.... भीवसेन उठा परसी पेन की मुर्ती को हाथ जोड़े और कहने लगा – कल रात सुखराम मेरे सपने में आया था..(सुखराम जंगुबाई क बेटा था जो कुछ साल पहले मर चुका था) सब लोग एक-दुसरे को बड़ी उत्सुकता से देखने लगे...


         भीवसेन आगे बोला- सुखराम ने मुझसे कहा.. माई कल्यानी और बड़ा-देव मिलना चाहते है, तुम लोग क्यों पति-पत्नी को मिलने से रोक रहें हो.. ये बांध उन दोनों के मिलन का माध्यम है, ईसे रोककर माई कल्यानी और बड़ा-देव दोनों का प्रकोप तुम पर, तुम्हारे परिवार पर आएगा। देवताओं के गुस्से का सामना मनुष्य नहीं कर सकता। तुम्हें ईस बांध के काम में रुकावट नही डालनी चाहिए। देवताओं के मिलन के लिए तुम्हें ये गाँव खाली कर देना चाहिए। जंगुबाई बोली- ईस काम से बड़ा-देव पानी में समा जाऐंगें..देवताओं की कृपा हम पर होगी..हम सुखी होंगे। सब आदिवासी मुस्कुराने लगे.... बड़ा-देव की जयजयकार के साथ सभा समाप्त हुई।


      इसी दोपहर पुर्नवसन की सारी कागज़ी कार्यवाही पुरी हो गई। शाम को बड़ी धुमधाम के साथ माई कल्यानी और बड़ा-देव की पुजा की गई।डोमी के ही हाथों बड़ा-देव की सबसे उँची टहनी पर पिली ध्वजा बाँधी गई। भोले आदिवासी प्रसन्न थे.. गाँव छोड़ने के दुखपर, देवताओं को मिलवाने की प्रसन्नता हावी हो गई थी.. जंगल के वारिसों की जंगल में ये आखरी रात थी......
       अगले दिन आदिवासीयों ने गाँव खाली कर दिया। उन्हें जंगल और शहर के मध्य एक बस्ती में ठहराया गया था, जहाँ और भी कई विस्थापीत लोग पहले से थे। ये आदिवासी अब उसी बाँध में मज़दुरी करते, जीतोड़ मेहनत करते, अपने पालनहार जंगल को काटते, पवित्र पहाड़ों को तोड़ते.. पर हाँ कोई कह रहा था कि भीवसेन बड़े मज़े में है, उसे तहसिल कार्यालय में सरकारी नौकरी लग गई है,बड़ा घर भी मिल गया है,उसकी बेटी इंग्लिश स्कुल में पढ़ रही है.... जंगुबाई कहती- ये सब बड़ा-देव की किरपा है... सब आदिवासी वहीं से उस पिली ध्वजा को हाथ जोड़कर कहते... जय बड़ा-देव......... 
   


 


तारीख: 23.08.2019                                    प्रमोद मोगरे









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