बुढ़ी काकी रिटर्न

’’भाईसाब टेम काई वियो’’ एक बुढ़िया सब्जी बेचने वाली औरत ने पास की सब्जीवाली से मोलभाव कराते सज्जन से पूछा। दिखने में वह पढ़ा-लिखा लग रहा था। 


उसने एक पल को प्रश्नकर्ता बुढ़िया की तरफ देखा व दूसरे ही पल मोबाईल में घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘छः बज रही है बाई’’


आज पहली बार ऐसा हुआ है कि काकी को तीन घंटे हाईवे की फुटपाथ पर बैठे हो गये पर दस रूपये की सब्जी नहीं बिकी। उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ अदृश्य होते हुए भी दिखाई दे रही थी। 


गांव के बगल से फाॅर लेन नेशनल हाईवे निकला हुआ था। शाम के समय बाहर नौकरी कर शहर को जाने वाले लोग हाईवे से ताजा सब्जियाँ खरीदना पसंद करते है। शाम के समय चमचमाती कारें शहर की तरफ अधिक संख्या में जाती हुई दिखाई देती है जबकि मजदूरी करने वालों से ठसाठस ऊपर तक भरी बसें गांवों की तरफ अधिक जाती हुई दिख जाती। 


बुढ्ढ़ी काकी का नाम हगामी बाई था पर सारे गाँव वाले उसे काकी के नाम से ही पुकारते व पहचानते थे। काकी की उम्र तकरीबन सत्तर से दो-तीन ऊपर ही होगी। शरीर एकदम सूख कर कंकाल हो चुका था। माथे पर बेतरतीब बिखरे सफेद बाल। चेहरे पर संघर्ष की काली झुर्रियाँ व हाथ-पाँव खेतों में काम करने के कारण एकदम खुरदुरे हो चुके थे। खेती के नाम पर एक छोटा सा खेत उसके हिस्से आया। पाँच भाइयों में बटवारा होने से खेत टुकड़ों में बट गए थे। उसी छोटे से खेत में उगाई हरी सब्जी वह हाईवे पर आकर बेच जाया करती थी। उससे जो भी राशि मिलती उससे घर का जरूरी सामान गाँव के ही नाथुकाका की दुकान से खरीद लेती। 


सब्जी बेचने से कभी उसको सौ रूपये भी मिल जाते तो कभी दस रूपये में ही संतोष करना पड़ता। सौ से अधिक की दानकी उसे अभी तक कभी नहीं मिली। इसी में लागत मूल्य भी शामिल था। उसे लागत मूल्य की कहां परवाह थी। इतना गणित उसे नहीं आता था। जो मिलता उससे ही संतोष कर लेती। आज पहली बार ऐसा हुआ कि उसके एक रूपये की ग्राहकी नहीं हुई। 


‘‘काकी आज कतरा रूपिया कमाई लिया?’’ काकी के दायीं तरफ अपनी दुकान फैलाये बैठी कमली ने पूछा। कमली ने कई तरह की सब्जियाँ बिखेर रखी थी। काकी को इससे कोई वास्ता नहीं था कि कौन कितना कमा रहा है फिर ये कमली रोज-रोज उससे ये सवाल क्यों पूछती? क्या वो ये दिखाना चाहती कि उससे बेहतर कमाई वो करती है। काकी हमेशा इमानदारी से अपनी दानकी बाता देती। उसे कमली से कोई ईर्ष्या नहीं। 


काकी बरसों से अकेली गुजर बसर कर रही है। उसके एक ही लड़का था जो कई बरस पहले उसे छोड़कर शहर चला गया। दसवी में फैल होते ही उसे बाॅम्बे भेज दिया। कुछ बरस तो लड़का हर दो-तीन महिनेे में काकी से मिलने आ जाता। उसके लिए रूपये भी छोड़ जाता। धीरे-धीरे वह साल में दो बार आने लगा। काकी शिकायत करती तो कहता, ‘‘सारी कमाई कै आवा-जावा का किराया में ही गवा दूँ?’’ काकी चुप हो जाती आखिर सही बात भी तो कह रहा है। इस उमर में कमाएगा नहीं तो आगे गुजारा कैसे करेगा। कुछ सालों बाद लड़के का आना-जाना कम हो गया। अब वो साल में एक बार आने लगा। बुढ़िया उसको समझाती पर उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। फिर एक दिन खबर आई की उसने वहाँ पर किसी दूसरी जात की लड़की से शादी कर ली। खबर सुनते ही काकी ऐसे जड़ हो गयी मानो काले कोबरा साँप ने डस लिया हो। लड़के ने समाज के डर से गाँव आनाजाना ही छोड़ दिया। पंचों ने काकी को समाज से बाहर कर दिया। सालभर तो काकी खूब रोई, अपनी किस्मत को कोसा, औलाद को भला बुरा कहा। धीरे-धीरे वो पुराने जख्म भुलाकर खुद का पेट पालने लगी। वक्त हर जख्म भुला देता है।  


‘‘ऐ...कमली तू भी काई मजाक करे। आज तो एक रूपिया री गिरागी नहीं हुई।’’ काकी ने बेरूखी से कहा। 


‘‘गणा दिन सू आया काकी। कटे ग्या हा’’ 


काकी पिछले पन्द्रह दिनों से सब्जी बेचने नहीं आई थी।


‘‘तबीयत ठीक नी ही बेटा। अब ई बुढ़ापा में हाथ-पाव नी चाले।’’ काकी ने रूखी आवाज़ में कहा। उसे अभी भी बुखार आ रहा था फिर भी आना पड़ा क्योंकि पिछले कई दिनों से दानकी नहीं होने से इलाज कराना तो दूर की बात घर में खाने के लिए आटा-नमक भी खतम हो गए थे। मजबूरी दुनिया की सबसे खराब चीज़ होती है।  


आज से तीस साल पहले काकी यहां हाईवे पर अकेली आकर सब्जी बेचा करती थी। तब तो सिंगल रोड़ ही था और लोग भी कम आते-जाते थे फिर भी दानकी अच्छी हो जाती थी। धीरे-धीरे कई औरतें उससे कम्पीटिशन के लिए मैदान में उतर गयी। काकी हमेशा अपनी निर्धारित जगह पर ही बैठा करती थी पर दूसरे कम्पीटिटर उसके दोनों तरफ आकर बैठने लगे। वह रोक भी नहीं सकती थी पर इससे उसकी ग्राहकी कम होने लगी। वैसे काकी को अधिक लालच नहीं था। अकेले व्यक्ति की ज्यादा जरूरतें नहीं होती है। जो मिलता उसी में गुजारा कर लेती।


कमली को जवाब दे कर वह फिर से खामोश हो गई। आते-जाते लोगों को देखने लगी। उसे चिंता हो रही थी कि सब्जी नहीं बिकी तो आज भी भूखा सोना पड़ेगा। जमा पूंजी तो कब की खत्म हो चुकी थी। घर में आटा और दाल दो दिन पहले ही समाप्त हो गए थे। कल तो वो जैसे-तैसे भूखी रह गई। कभी ज्यादा भूख लगती तो खेत में उगी कच्ची सब्जी ही खा लेती; किंतु आज उससे रहा नहीं गया। भूख सही नहीं गई तो बुखार की हालत में भी हाईवे पर सब्जी बेचने आ गई। ज्यादा बड़ा टोकरा उससे उठाया नहीं जाता। बस दो-तीन किलो सब्जियाँ ले जाती और बीस-तीस रूपये कमा लाती। नियति भी कैसे-कैसे खेल खेतली है। काकी को आज ग्राहक की सख्त जरूरत थी लिहाजा आज एक भी ग्रहक उसकी दुकान पर नहीं आया। 


दूसरी जात में शादी करने से समाज ने हुक्का-पानी बंद कर रखा था लिहाजा वह किसी से उधार मांगकर भी नहीं ला सकती थी। पड़ौसी जानते हुए भी उसकी सहायता नहीं कर पाते थे। उन्हें समाज से बेदखल होने का डर रहता था। कोई उसके घर तक नहीं आता। उसको अपने घर नहीं बुलाता था। काकी को अब इन चीजों की आदत हो गई थी। उसने इसे ही अपनी नियति मान लिया।


‘‘आज घरे नी चालोगा काकी?’’ कमली ने अपना सामान समेटते हुए पूछा तो काकी की तंद्रा भंग हुई। उसने आसपास देखा, सारे सब्जी बेचने वाले जा चुके थे। कमली भी अपना बोरा समेट रही थी। चारों तरफ अंधेरा बढ़ने लगा, हाईवे पर चलने वाले वाहनों की हेड़लाईट्स भभक रही थी। 


‘‘तू चाल कमली... मैं बस थोड़ी देर में आयी।’’ उसने सोचा दस मिनिट और बैठ कर देख लूँ; ईश्वर इतना भी निर्दयी तो नहीं कि एक बुढ़िया को भूखे मरने की नौबत आने देगा। उसे इस बात की भी उम्मीद थी कि अब सब चले गए तो जो काई भी आएगा उसी से सब्जी लेगा। कम से कम दस-बीस रूपये की दानकी तो हो ही जाएगी। आदा किलो आटा मिल जाए तो दो दिन निकल जाएंगे। 


इसी प्रकार के विचारों में बैठी काकी ने दूर से आती मोटर गाड़ियों को ललसायी नज़रों से देखना शुरू कर दिया। गाँव के मंदिर में शाम की आरती हो रही थी, ढोल-नगाड़ों की आवाज़ आ रही थी। चारों तरफ मंगल ध्वनि का स्वर सुनाई दे रहा था। हाईवे पर मोटर गाड़ियां इतनी तेज़ रफ्तार से चल रही थी कि धूल के कण काकी के चेहरे से टकरा रहे थे। मोटर गाड़ियों के भोंपू की कर्कश आवाजें मंदिर से आती घंटियों की ध्वनि को दबा रही थी। काकी ने अभी तक हार नहीं मानी। उसे विश्वास था कि कोई ना कोई चमत्कार जरूर होगा। हो सकता है सृजनकर्ता मेरे धैर्य की परीक्षा ले रहा हो। कोई तो दयालु इंसान आयेगा या फिर स्वयं ईश्वर प्रकट होकर कहेगा, ‘काकी तुमने बहुत संघर्ष कर लिया। अब बस करो। चलो उठो ! हम तुम्हें स्वर्ग लेने आए है।’


इतनी देर में एक ब्लैक कलर की बीएमडब्ल्यू कार उसके पास आकर रूकी। हल्के अंधेरे में भी उसका काला कलर चमक रहा था। काकी की आँखों में भी चमल आ गयी। कार का दरवाजा खुला व एक मोटा तंदुल आदमी जिसका वजन तकरीबन 110 किलो होगा अपने पालतू कुत्ते के साथ नीचे उतरा। तोंद सूमो पहलवान की तरह थी। चलने से उसका पेट पुरी तरह से हिल रहा था। कार से उतर अपनी पेंट को ऊपर खिंचते हुए काकी के पास आया। 


‘‘बैंगन क्या भाव दिए बाई?’’ उस आदमी की नज़रें सब्जी पर टिकी हुई थी। एक पल के लिए भी भूखी-प्यासी बुढ़िया की तरफ नहीं देखा। वह बुढ़िया उसके लिए केवल एक सब्जी वाली थी। इससे ज्यादा प्यार तो वो अपने कुत्ते को कर रहा था। 


‘‘पन्द्रह रूपया रा एक किलों बाबूजी साहब’’ काकी ने डबल रेस्पेक्ट देते हुए कहा ताकि इससे प्रभावित होकर भी शायद दया दिखा दे। अब उसने काकी का चेहरा देखा पर संवेदनहीनता। 


‘‘पन्द्रह तो बहुत ज्यादा है बाई । मण्डी का भाव तो पाँच रूपये किलो है।’’ उसने तपाक से कहा।


‘‘बाबूजी मण्डी रो तो मने नी मालूम। मैं तो अतरोक जाणू हूँ कि दिन भर खेता में मेहनत करनी पड़े होकम।’’ काकी ने बड़े भावुक अंदाज़ में कहा। बस उसे बहुत तेज की भूख लग रही थी। 


‘‘पाँच रूपये किलो से जमती हो तो बोलो’’ उसने कड़े स्वर में पूछा। 


काकी को इस समय मोलभाव से अधिक अपनी भूख की चिंता सताए जा रही थी। पाँच रूपये में तो दुकान वाला उसे आटा भी नहीं देगा। कम से कम दस रूपये तो चाहिए ताकि आधा किलो आटा खरीद सके। जब से नाथुकाका का लड़का दुकान पर बैठने लगा है तब से उसने उधारी देना भी बंद कर दिया। कहता है मैं माॅर्डन जमाने का बिजनेसमैन हूँ। पहले तो नाथु काका कभी-कबार उधार भी दे दिया करते थे। उनके लड़के ने एक तख्ती लटका दी जिसमें लिख रखा था, उधार मांगकर शर्मिंदा नहीं करे।


‘‘दो किलो ले लो बाबूजी। दस रूपये दे देणा।’’ काकी को इस वक्त केवल दस रूपये की जरूरत थी इसलिए वह दो किलो भी देने को तैयार हो गयी। वरना सादे दिनों में वह दो किलो के तीस रूपये लेती थी। 


‘‘दो किलों का क्या आचार डालूंगा। पाँच की एक किलो जमती हो तो बोल!’’ 


इतने में उस आदमी के आई फोन की घंटी बजी। फोन लाउडस्पीकर पर रखते हुए बोला, ‘‘हैले...हाँ राजू... तुझे दो वाईन की बोतल लाने भेजा था क्या हुआ ले आया क्या?’’ बात करने के अंदाज से मालूम होता है कि सामने वाला जरूर उसका नौकर होगा।


‘‘साब, मैं वाईन की दुकान के बाहर से ही बोल रहा हूँ। सरकारी नियमानुसार छह बजे दुकान बंद हो जाती है और इस समष साढ़े छह बजे हैं तो दुकान तो बंद है पर वो शटर के नीचे से दो नंबर में बोटल देने को तैयार है।'' 


''हाँ तो ले लेना। दो क्या चार नंबर में दे रहा हो तो भी ले आव'' 


''पर रेट से 200 रूपये अधिक मांग रहा है इसलिए मैने आपको काॅल किया।’’


‘‘हाँ तो कोई बात नहीं तू लेले। इसमें इतना पूछना क्या?’’ कहते हुए उस मोटे आदमी ने फोन रख दिया। 


‘‘हां तो बाई जल्दी बताओं मेरे पास टाईम नहीं है पहले से ही लेट हो रहा हूँ। आपको पाँच रूपये किलो में जमती हो तो एक किलो तोलो वरना मुझे नहीं चाहिए।’’


‘‘होकम दस की तीन किलो ले जाओ। म्हारे दिन भर में एक रूपया री सब्जी नी बिकी। घर को चुल्हो चाल जाई आपरी मेहरबानी सू। खावा को आटो नी है मालिक।’’ अब उसे महसूस हुआ कि वो सब्जी नहीं बेचकर भिख मांग रही हो।


‘‘मुझे नहीं चाहिए तीन किलों। तुम्हारे ही रखों। जब एक किलों बोला तो एक की बात कर ना। जितनी चाहिए उतनी ही लेंगे। कोई घर थोड़े ही भरना है। तुम लोग तो बेचने के चक्कर में सारी एक साथ पैल देते हो। जब देनी ही नहीं थी तो फालतु में टाईम क्यों खोटी करा?’’ कहते हुए वह मोटा आदमी कार की तरफ मुड़ा, ‘‘पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते है निठल्ले लोग।’’ हल्की बड़बड़ातट सुनाई दी।  देखते ही देखते बीएमडब्ल्यू फुर्रर... हो गयी।


काकी की आँखों के आगे अंधेरा छा गया। उसे चक्कर से आने लगे। अंधेरा इतना घना था कि अब कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ भी।


तारीख: 25.06.2019                                    प्रेम एस. गुर्जर









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है