बुझते जुगनू


[इस कहानी में दर्शाए गए चरित्र और नाम पूर्ण रूप से काल्पनिक हैं। लेखक ने एक विषय को दर्शाने के लिए अपने जीवन के किसी स्त्रोत को प्रेरणा मात्र चुना है। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति क़ी भावनाओ को क्षति पहुँचाना या किसी को शिक्षा देना नहीं है।]


स्कूल से गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार किसे नहीं रहता और उस छुट्टी में किसी रिश्तेदार की शादी हो तो मज़ा ही क्या ! मुझे याद है जब मैं छोटा था और छठी कक्षा में गया था तो मेरे शिक्षकगण ने हमारी पूरी क्लास को बड़ा डराया। 


"तुम सब अब बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गए हो। किशोर हो गए हो, अब समय है पढ़ाई करने का। अब तुम्हे ग्रेड नहीं मार्क्स मिलेंगे। अब तुम पेंसिल से नहीं पेन से लिखोगे। गलतियाँ करोगे तो मिटा नहीं पाओगे उन्हें काटना पड़ेगा। पाचवीं तक जो भी किया वो भूल जाओ।"


हम सब ने एक दुसरे से कहा, "अरे ये कोई बात हुई। हम तो अभी भी बच्चे हैं। इतना डराने की ज़रूरत क्या है हमे। जैसे किसी जंग पे जा रहें हैं। यार ये टीचर्स भी ना हमे कब तक सतायेंगे।" तभी गर्मियों की छुट्टियाँ आयीं और हमने कहा "भाड़ में जाए बड़ा होना। हमे तो अब भी छुट्टियाँ मनानी हैं।" उस दिन ऐसे भागे जैसे कभी स्कूल में आना ही नहीं है।


इसी गर्मी की छुट्टी में दमयंती मौसी की बड़ी बेटी की शादी थी। सपरिवार बुलाया था। पापा को कोई काम था इसलिए उन्होंने कहा "तुम लोग चले जाओ। मैं शादी के कुछ दिन पहले पहुंचुंगा।" मैंने, मम्मी ने और गोलू ने तो जैसे हर चीज़ की पैकिंग कर ली इन दो दिनों में। हमें तो बस जल्दी से जल्दी उनसे मिलना था, घर में बन रही मिठाईयां खानी थी और सारे भाई बहनों के साथ खेलना था।


बस तीन घंटे का सफ़र हुआ ट्रेन का और हम पहुँच गए नानी के घर। ये दुनिया का ऐसा कोना है जहाँ किसी भी बच्चे को सबसे ज्यादा प्यार मिलता है। जहाँ उसकी सारी गलतियाँ माफ़ होती है और उसे उसके पापा मम्मी नहीं मार सकते। "आशा मौसी" चिल्लाकर हम उनके गले लग गए। सबके पैर छुए और बच्चों से मिलकर खेलने का जुगाड़ भी बना लिया।


"तुम यहाँ छुपोगे, इससे बात मत करना, भैया देखो मोटू और मोटा हो गया, पता है भैया ये लड़कियों से बात करता है, भैया आपकी तो मूछें आ रही है।"


बच्चों ने घेर कर हमे ढेर सारी बातें बताई। हर कोई अपनी अपनी बातें बताने में लगा हुआ था। सब चाहते थे कि हम लोग उनके साथ खेलें। सबसे बड़े होने का ये फायदा ज़रूर होता है। तभी गोलू ने कहा, "अरे बिट्टू कहाँ हैं?"


मैंने भी ध्यान दिया। सच में सब लोग थे पर बिट्टू नहीं था। बिट्टू सीमा मौसी का इकलौता बेटा था, सबसे प्यारा और चंचल था। हमेशा खुशियों से भरा रहता था। कोई न कोई शरारत करके हर किसी को हंसा देता था, पर जब उसे पिछली बार देखा था तो वो चार साल का था। अब पुरे तीन साल बाद देख रहे थे। पता नहीं कैसा होगा वो अब तो बड़ा हो गया है शायद शरारतें भी बड़ी हो गयी हों। पर वो है कहाँ? सबने कहा बिट्टू साढ़े छे बजे से पहले नहीं आएगा। उसके पढने का टाइम है अभी।


"क्या कह रहे हो छुट्टियों में भी कोई पढ़ता है क्या?" गोलू ने कहा। "हाँ भैया वो पढ़ता है। वो हम सबसे ज्यादा पढ़ता है। सीमा मौसी उसे खुद पढ़ाती है। कभी भी उसे साढ़े छे बजे से पहले नहीं निकलने देतीं। वो शैतानी करता है न इसलिए।" हिमांशु ने मुझे अपने बच्चे वाली तोतली आवाज़ में कहा।


"लेकिन अभी तो छुट्टियाँ है और घर में शादी भी है। हमारे साथ नहीं खेलेगा क्या वो?" मैंने कहा। "चलो मैं उसे बुला लाता हूँ।" कहकर मैं उसे बड़े घर में ढूंढने गया। देखा तो वो बड़े कमरे के बरामदे में बैठा पढ़ रहा था। किताब पे नज़र गड़ाए, सर झुकाए केवल वो बैठे-बैठे रट रहा था। सामने सीमा मौसी बैठीं थी, हाँथ में मैगज़ीन लिए। बगल में एक छड़ी रखी हुई थी। समझते देर न लगी क्या चल रहा है।


मेरे क्लास में मेरे वो दोस्त जो प्रथम आतें हैं अपना पढ़ने का टाईमटेबल और अपना दर्द बतातें हैं तो ऐसी ही दशा का वर्णन करते हैं। पर मैं तो फिर भी छठी कक्षा में हूँ, ये तो अभी दूसरी कक्षा में ही है। अभी से ऐसी सख्ती क्यों?


क्या बिट्टू बहुत शरारत करने लगा है? क्या उसके मार्क्स बहुत कम आने लगे हैं? खैर जो भी हो मैंने आपने आप को खुशकिस्मत समझा कि मम्मी-पापा ने मेरे या गोलू के साथ ऐसा कुछ नहीं किया।


मैं बीच में बोला, "अरे बिट्टू तो बहुत बड़ा हो गया है।" बिट्टू ने ख़ुशी से मेरी तरफ देखा और बोला, "अरे भैया आप कब आए।" पर मजाल थी कि वो अपनी जगह से हिल जाता। वहीँ बैठा रहा और मैंने आगे बढ़ के मौसी के पैर छुए। मैंने मौसी से पूछा, "ये आप इसे इस तरह छड़ी ले कर पढ़ा रहीं हैं, क्यों?"


"क्या करूँ बेटा ये बहुत शरारत करने लगा है पढ़ाई में बिलकुल मन नहीं लगता इसका। सिर्फ खेल कूद में लगा रहता है। इसलिए मुझे भी इसके साथ बैठना पड़ता है।"


"पर अभी तो छुट्टियाँ चल रहीं हैं। अभी तो बच्चों के साथ खेलने दीजिये।" 


"नहीं नहीं छुट्टियों के तुरंत बाद यूनिट टेस्ट शुरू होंगे। अगर अभी पढ़ेगा तो ही तो परीक्षा में कुछ लिख पाएगा। वरना सब भूल जाएगा।"


मैंने उसके बैद कुछ बोलना उचित नहीं समझा। वैसे बात भी सही थी अभी पढ़ेगा तो ही तो कुछ लिख पाएगा। मैंने उसकी तरफ देखा वो चुपचाप पढ़ रहा था। मैंने उससे कहा, "ठीक है बिट्टू तुम आज की पढ़ाई ख़तम कर लो फिर हम सब मिलके खेलेंगे।"


उसने मुझे देखकर मुस्कुराते हुए कहा, "ठीक है।" अजीब सी चुप्पी थी उस मुस्कराहट में जैसे कह रही हो, "क्या खेलने के लिए भी सही वक़्त ढूँढना चाहिए?"


शाम हो गयी, बिट्टू खेलने आया और आके सीधे बरामदें की दीवार से लग के बैठ गया। उसने हम सबको खेलते हुए देखा और चुपचाप वहीँ खड़ा रहा। पकड़म-पकड़ाई हमारे बचपन का बहुत ही रोचक खेल था। मैं कुछ देर तक अपने ही खेल में मग्न रहा तभी ध्यान आया की बिट्टू भी आ गया है। मैंने उसे हाँथ से आने का इशारा किया। पर वो नहीं आया। मेरी समझ में नहीं आया। मैं उसके पास गया और ख़ुशी से उसे उठा के बोला, "ये ये बिट्टू। कैसा है तू हाँ। चल आएगा पकड़म-पकड़ाई खेलने।"


"नहीं" 


"क्यों चल ना। हमारे सामने तो सब दूध-भात हैं।" कहकर मैंने उसे पुकारा।


"नहीं पकड़म-पकड़ाई खेलने से कपड़े गंदे हो जाते हैं और किसी को चोट लग गयी तो मम्मी पापा से कोई शिकायत कर देगा।"


"अरे कुछ नहीं होगा। हम सब संभाल के खेलेंगे और कपड़े गंदे होंगे तो धुल जायेंगे।"


"नहीं मम्मी मारेगी।"


मैं हैरान था उस बच्चे की बातों पर। इतना डर सिर्फ इस बात का। अभी तो पढ़ कर उठा है थोड़ा सा खेल लेगा तो क्या हो जायेगा।


"ठीक है मैं मम्मी से पूछ लेता हूँ।" कहकर मैं मौसी से पूछने गया। मौसी ने कहा, "नहीं बेटा वो शादी का दिन है न काम भी बहुत ज्यादा है और कपड़े गंदे हो गए तो साफ़ करने में दिक्कत होगी। तुम लोग कैरम खेल लो वो हम लेकर आए हैं ना।"


वाह मौसी ने अच्छा उपाय बताया कैरम खेलने का। जब हम बाहर जा कर खेलने की बात कर रहे हैं तो वो हमें घर में खेलने को कह रहीं हैं। खैर वैसे भी शाम हो चली थी और अँधेरा हो गया था। हम सब को पकड़म-पकड़ाई की दूसरी पारी को बीच में ही बंद करना पड़ा। जब घर में आए तो मैंने बिट्टू को घर में नहीं पाया। वो अब भी बहार खड़ा था। मैंने उससे पूछा, "अरे बिट्टू अन्दर आ जाओ। क्या कर रहे हो रात हो गयी है।"


"हाँ आता हुं।" कहकर भी वो वहीँ खड़ा रहा। मैं थोड़ी देर बाद खुद वहां गया और पूछा, "क्या कर रहे हो?"


उसने बड़े ही जोश में कहा, "भैया मैं जुगनू को ढूंढ़ रहा हुं शाम के वक़्त को यहाँ आते हैं।"


"जुगनू में देखने जैसा क्या है?" मैंने हैरानी से पूछा।


"वो किस तरह चमकतीं हैं रात में। उनके देखो तो ऐसा लगता है मानो कितने सारे इलेक्ट्रिक बल्ब जल रहे हों एक साथ।"


"और तुम्हे वो पसंद है?"


"हाँ मुझे उन्हें देखना बहुत अच्छा लगता है। मैं हमेशा सोचता हु ये जलते और बुझते कैसे हैं। ये दुनिया में अकेले ऐसे जीव हैं जिनकी रौशनी में कोई गर्मी नहीं होती। ये बिजली से नहीं रासायनिक प्रक्रिया (chemical reaction) से मिली रौशनी देते हैं जो ठंडी होती है। कभी-कभी ये अपनी रौशनी का इस्तेमाल अपने बचाव या किसी और जीवों के समूह को भटकाने के लिए भी करते हैं। कई लोग इन्हें मधुमक्खी की जाती का मानते हैं पर उन्हें ये नहीं पता कि ये झुण्ड में ज़रूर रहती हैं जैसे की मधुमक्खियाँ पर ये किसी को डंक नहीं मारते। बड़े ही शांत स्वाभाव के प्राणी हैं ये।"


मैं बस बिट्टू की बातें सुन रहा था। एक सात साल के बच्चे के हिसाब से वो ढेर सारी बातें जानता था एक जुगनू के बारे में।


"क्या तुम्हे इनमें दिलचस्पी है?" मैंने पुछा।


"इनमे ही नहीं मुझे सारे जीवों में दिलचस्पी है भैया। मुझे बहुत अच्छा लगता है किसी भी छोटे कीड़ों के बारे में जानने में। क्या आप जानते हैं विज्ञान के विषय में ये एक अलग धारा है-हर्पेटोलोजी?"


"नहीं मैं नहीं जानता।" कहकर मैं सिर्फ मैं उसे देखता रह गया। वो चंचल बिट्टू जो कभी शरारत करके सबकी नाक में दम कर देता था अब ज़रूरत से ज्यादा शांत है। आँखे काली होती जा रही है, वो दुबला हो चूका है, कंधे झुक चुके हैं, उसे उम्र से पहले बड़ा किया जा रहा है।
सहसा उसे कुछ याद आया उसने एक जुगनू को हाँथ से पकड़ा और अपनी जेब में डालकर कहा, "चलिए भैया, मम्मी मुझे यहाँ देखेगी तो गुस्सा करेगी। और खाना खा के जल्दी सोना है तो ही सुबह जल्दी उठ पाउँगा।" हम दोनों साथ-साथ घर के अन्दर चले गए।


शादी के दिन नजदीक आते गए। मैं और सभी बच्चे छोटे छोटे कामों में लग गए हम सब ने तैयारियाँ भी की और मस्ती भी। गाने बजाने का सिलसिला भी जारी था और काम भी। सब कुछ ठीक चल रहा था। बिट्टू भी कभी कभी हमारे साथ खेल लेता और थोड़ी हंसी उसके चेहरे पे भी देखने को मिली। पर कुछ हो न हो वो सारे काम डर डर के करता था।


मौसी उसे दिन में एक न एक बार डांट ज़रूर देती और वो समझ भी नहीं पाता क्या हुआ। एक दिन सुबह की बात है जब बिट्टू को मैंने उठा के कहा चलो बाहर चलते हैं। उसने मना किया कहा, "मेरे अभी कंप्यूटर क्लास का टाइम है।" 


मैंने ज़िद्‍द की और कहा, "अरे अभी हमे कंप्यूटर सिखने की क्या ज़रूरत? और तू हर चीज़ इतना टाइम देखकर क्यों करने लगा है।" उसे उठा के ले गया और तीन घंटे हमने खूब क्रिकेट खेली। उस रोज़ मज़ा आ गया। हम ने वहां की टीम को हरा दिया था। बिट्टू ने शानदार गेंदबाज़ी की और टीम को अच्छी मात दी। वो बैटिंग भी बढ़िया कर लेता था। हमने खूब मज़ा किया। जब घर लौटे तो मौसी के साथ मौसा भी आ गए थे। उन्होंने हमे आते हुए देखा तो पूछा, "कहाँ से आ रहे हो?"


मौसा से मैंने कहा, "क्रिकेट खेलने गए थे। हमने खूब अच्छी तरह से हरा दिया दूसरी टीम को। बिट्टू ने हमारी टीम में सबसे अच्छी गेंदबाजी की। पुरे चौदह विकेट लिए इसने तीन मैचों में।


मौसा ने अजीब सा मुह बनाया। बिट्टू ने कहा, "पापा मैंने नौ विकेट लिए एक मैच में तो सब लोग मेरी तारीफ कर रहे थे।"


"हाँ-हाँ सुन लिया। बड़ा होके क्या क्रिकेटर बनेगा?" मौसा ने मौसी की तरफ देख कर कहा, "अरे सुना तुमने महाशय क्रिकेट खेल कर, विकेट ले कर आएं हैं। तुमने पैदा करने से पहले सचिन तेंदुलकर को देखा था क्या?"
"क्यों बिट्टू तू कंप्यूटर क्लास क्यों नहीं गया। सर घर पर आकर कहकर गए।" मौसी ने पूछा।


"पर माँ मैं….मैं….मैं" उसके मुँह से कुछ नहीं निकला सिवाए ये कहने के “मैंने नौ विकेट लिए।"


"तो कौन सा तीर मार लिया। अरे कभी कंप्यूटर क्लास में भी 90+ लाये हो? नहीं ना। ये क्रिकेट कोई भी खेल सकता है पर पढ़ाई में बहुत कम्पटीशन है उसमे लाना बहुत मुश्किल है।"


मुझे लगा उन्होंने जैसे उस बेचारे की नौ विकेट वाली बात ही नहीं सुनी। फिर मौसी ने मौसा से कहा, "देख लो ये आजकल क्या कर रहा है?" 


"मुझे क्या बता रही हो तुम्हे इसका ख़याल रखना चाहिए था।"


"अच्छा ये सिर्फ अब मेरी ज़िम्मेदारी कैसे हो गयी?"


"नहीं मैं तो ये कह रहा हु अगर तुमने इसका ख्याल बचपन से दिया होता तो ये नौबत न आती।"


"मैंने कभी ख्याल नहीं दिया या तुमने? तुम्हे कब फुरसत मिली अपने काम और दोस्तों से। बस आकर दो-चार डांट देते हो तो समझते हो काम हो गया।" मुझे समझ में नहीं आया ये मौसा-मौसी ऐसे क्यों लड़ रहे हैं मानो बिट्टू कोई स्मगलर हो और उसने कोई ऐसा काम कर दिया हो जिससे पूरी सात पुश्तों का नाम ख़राब हो गया।


उनकी लड़ाई में न जाने कब बेचारा बिट्टू चुपचाप कमरे में बैठ गया। उसने अपनी दराज़ से वो जुगनू निकाला जिसे उसने उस दिन पकड़ा था। उसे वो एक बोतल में संभाल कर रखता था। उसने मुझे देख कर कहा, "भैया ये जुगनू कभी-कभी बुझ भी जाते हैं। इनके आसपास ज्यादा रौशनी हो तो वो अपनी रौशनी खो देते हैं और दुसरे के सामने सिर्फ मामूली कीड़े बनकर रह जाते हैं।" 


मैं उसकी बात समझने में लगा था कि तभी मौसी आ गयी। उनके चेहरे पे गुस्सा साफ़ झलक रहा था। मुझे उस दिन कुछ पता नहीं चला लेकिन आज समझ में आता है शायद मौसा से जिम्मेदारियों के ऊपर जो झगड़ा था वो कुछ ज्यादा बढ़ गया और उन्होंने सारा गुस्सा बिट्टू पे उतारा। उन्होंने बिट्टू के हाँथ में वो गिलास और उसमे वो जुगनू देखा। गुस्से से वो आगे बढ़ी और उन्होंने बिट्टू के हाँथ से वो गिलास छीनकर फ़ेंक दिया।


चिल्लाते हुए बोलीं, "जब देखो तब इन कीड़े मौकोड़े के साथ लगा रहता है।" उन्होंने बिट्टू को एक जोर का थप्पड़ मारा। मेरा वहां रुकना उचित नहीं था। मैं वहां से चला गया। मुझे लगा कहीं मम्मी आकर मुझे ही ना मारने लगे। पर रूम से निकलते वक़्त मैंने सिर्फ बिट्टू की रोने की आवाज़ ही सुनी। वो बार-बार यही कह रहा था "सॉरी मम्मी सॉरी मम्मी आज से कभी ऐसा नहीं होगा।"


आगे क्या हुआ वो ठीक से ध्यान नहीं। उस शाम बिट्टू बहुत शांत था। या यूँ कहें कि पूरा घर ही शांत था। मैं थोड़ा परेशान था सुबह घर में हुए इस हादसे की वजह से क्योकि कहीं न कहीं मैं इसके लिए ज़िम्मेदार था। मैं बिट्टू के कमरे में गया। बिट्टू वहां नहीं था। मैंने उसकी कुछ कॉपी खोल कर देखी। 


हर एक कॉपी में उसने कई प्रखर जवाब लिखे हैं सवालों के। उसे हर एक टेस्ट, क्लास टेस्ट या डिक्टेशन में अच्छे से अच्छे नंबर मिले हैं। मैं जहाँ तक समझा उसके मार्क्स अच्छे ही थे क्योकि मैं जब उसकी उम्र में था तो मुझे कभी गणित में वैरी गुड (बहुत अच्छा) नहीं लिखा किसी शिक्षक ने। मुझे समझ में आ गया इस बेचारे बच्चे को बेकार कोलू का बैल बनाया जा रहा है। आज के माँ-बाप को 'अच्छे' शब्द की परिभाषा समझनी चाहिए। अच्छा मतलब स्कूल या क्लास में अव्वल आना ही नहीं होता।


मैं बिट्टू को ढूंढने लगा उससे बात करनी थी कहीं वो नाराज़ तो नहीं था ना सुबह में हुई इस घटना से। वो मुझे कहीं नहीं मिला बस मैंने उसे फिर से उसी बरामदे में पाया। वो चुपचाप वहां बैठा था। वहीँ बैठे जुगनू को निहार रहा था। मैं उसके पास पहुंचा। उसने मेरी आहट सुनी तो घबरा गया। फिर जब उसने देखा की मैं हु तो वो शांत हो गया। मैंने उससे पूछा, "फिर से जुगनू को देख रहे हो?"


"हाँ" उसने रूखे मन से जवाब दिया।


"सुनो बिट्टू आज सुबह के लिए मैं माफ़ी चाहता हु। मुझे तुम्हे जबरदस्ती नहीं ले जाना चाहिए था। लेकिन मुझे नहीं पता था की तुम्हे इतना कुछ बोलेंगे मौसा-मौसी। मुझे पता है तुम दुखी हो।"


"नहीं मैं उस बात से दुखी नहीं हु भैया।" उसने तुरंत जवाब दिया।


"तो?" मैंने पूछा।


उसने मेरे सामने अपनी मुट्ठी खोली, उसमे वही जुगनू था जो पहले उसकी गिलास में हुआ करता था। लेकिन वो हिल भी नहीं रहा था शायद कुचल के मार दिया गया था। उसने कहा, "देखो ये जुगनू बुझ गया। उस दिन देखा था न कैसे इसकी पीठ पर रौशनी जल रही थी। आज सब कुछ बंद हो गया। अब इसके परिवार को क्या जवाब दूंगा यही सोच रहा हु।" मैंने सामने देखा सारे जुगनू चमक रहे थे। क्या इस बच्चे की बात में थोड़ी सी सच्चाई हो सकती है? क्या सच में ये इस मरे हुए जुगनू का परिवार है और ये हम से जवाब मांग रहा है? तब तो हम से बहुत बड़ी गलती हो गयी।


मैंने कहा, "छोड़ो चलो चलते हैं। बहुत रात हो गयी।"


"हाँ चलते हैं लेकिन मैं बता दूंगा इनसे ये सब मम्मी ने किया है। ये सब उन्हें ही परेशान करेंगे। वैसे जानते हैं ये सिर्फ गर्मियों में आते हैं। सर्दियाँ इन्हें पसंद नहीं………………." बिट्टू फिर से अपने जुगनू की बातों में खो गया जिसमे मुझे ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी।



शादी के हो जाने तक मुझे याद है हम में से किसी ने बिट्टू से ज्यादा बातें नहीं की। शायद हम बिट्टू से डर रहे थे या उसके मम्मी पापा से। जल्द ही दीदी की शादी भी हो गयी। घर से मेहमान भी जाने लगे। हमने भी सोचा था कि परसों चले जायेंगे। बिट्टू के आज शाम में ट्यूशन में परीक्षा थी। इंग्लिश की परीक्षा। उसका परिणाम आज मास्टर जी ने दिया। बिट्टू शाम में आया तो उससे मौसी ने पूछा, "टेस्ट कॉपी कहाँ है?" (अतिशियोक्ति नहीं है पर ट्यूशन के टेस्ट के लिए भी अलग से कॉपी होती है)


"हाँ लाया।" कहकर वो उठकर गया और अपने रूम से कॉपी लेकर आया। मौसी ने उसकी कॉपी में देखा और पूछा, "कितने आए?"


“24/25”
"क्यों एक नंबर कहाँ गलत हो गया?"


"वो सरल वाक्य बनाएं में एक वाक्य रह गया था।" मौसी ने उसके वाक्यों की तरफ देखा। उसमे उसे पांच वाक्य बनाने थे - "माई मदर" यानि मेरी माँ पे।


मौसी ने उसके हर वाक्य को पढ़ा और कहा, "हाँ सब कुछ तो ठीक है माई मदर लव्स मी (मेरी माँ मुझसे प्यार करती है) आखिरी वाक्य था?"


"मैंने सोचा मम्मी कि लिख दू पर याद है आप ही ने कहा था कि झूठ न बोलना चाहिए न लिखना चाहिए।"


"हाँ तो?"


"तो मम्मी आप मुझसे कहाँ प्यार करती हो, आप तो सिर्फ मेरे मार्क्स से प्यार करती हो। मेरे किताब, कॉपी, परीक्षा, रिजल्ट से प्यार करती हो। आप तो मुझे सिर्फ डराती हो। इसलिए मैंने सोचा मैं झूठ क्यों लिखूं?"


उसकी छोटी सी जुबान से बहुत बड़ी लेकिन सटीक बात निकली थी। वो बात हम सबने सुनी, बच्चों ने और बड़ो ने भी। हम सब चुप रहे और मौसी भी कुछ देर के लिए अपने आगे आने वाले शब्द ढूंढ़ती रही।
थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, "ये क्या बोल रहे हो?"


"हाँ मम्मी अगर मैं लिख देता तो आप ही मुझे मारती कि झूठ क्यों लिखा।"


गुस्सा और भ्रम अगर एक मनुष्य के चेहरे पर एक साथ आ जाएँ तो उसका चेहरा कैसा होता है वो मौसी के चेहरे पर साफ़ झलक रहा था। चुप्पी तो तोड़ते हुए बिट्टू ने कहा, "मम्मी साढ़े छे बज गए मेरे खेलने का टाइम हो गया। मैं जा रहा हुं उसके बाद आकर मुझे पढ़ना ही तो है।" कहकर वो आगे बढ़कर खेलने चला गया। बल्ले और गेंद को अकेले पकड़ के खेल रहा था। खुद ही गेंद उछालता और खुद ही बल्ले से मारता। बड़ी ही अजीब स्थिति थी, एक बच्चे की जिन्दगी किसी घड़ी से जुड़ते हुए पहली बार देख रहा था। आगे कुछ ज्यादा नहीं पर इतना याद है कि वो दिन सबसे शांत गुज़रा जिसमे किसी ने बिट्टू को नहीं डांटा।



हम सब जाने की तैयारी कर रहे थे। सब बैग पैक कर लिए थे। नानी ने खाने के लिए ढेर सारा सामान बांध दिया था। हमे तो लगा अगले एक महीने तक हम सिर्फ मिठाइयाँ ही खायेंगे। आते हुए भी सबसे मिलके और बड़ों के पैर छुके जाना एक ज़रूरी प्रक्रिया है।


सबसे मिलने के बाद बिट्टू से मिलने गया तो वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था। अब भी उसकी वो मुस्कराहट याद है। बस कोमल और निशब्द। उसने कहा, "भैया अभी हम खेल नहीं पाए पर दोबारा मिलेंगे तो ढेर सारे खेल खेलेंगे, क्योंकि तब तक मैं बड़ा हो चूका होऊंगा ना। बड़े होने पर मुझे कोई परेशानियां नहीं होंगी, कोई स्कूल या ट्यूशन जाने के लिए नहीं बोलेगा, कोई मुझे नहीं मारेगा मैं सबको मरूँगा क्योकि बड़े तो हमेशा सबको मारते हैं ना और हमेशा अपनी मर्ज़ी चलाते हैं।"


मैंने हंस के कहा, "तुम्हे नहीं पता बड़े होने में कितनी परेशानियाँ हैं। पर हाँ ये वादा है जब तुम बड़े हो जाओगे तब हम ज़रूर साथ में खेलेंगे। ओके।"


"भैया मेरे पास आपके लिए एक गिफ्ट (उपहार) है।"
"हाँ दो"


उसने अपने हाँथ से एक शीशी निकाल के दी। उसमे एक जुगनू मरा पड़ा था। मुझे याद आया ये वही जुगनू है जिसे उसने पहले पकड़ा था और वो मर गया था। मैंने पूछा, "ये वही है?"


"हाँ ये वही है। मैं आपको मम्मी से बचा के दे रहा हु। जब हम बड़े हो जायेंगे ना तो ये आप मुझे वापस दे देना। ये अभी बुझ गया है। जब हम बड़े हो जायेंगे तो हम इसे फिर से जला देंगे।" मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। उस बच्चे को नहीं मालूम था कि बुझे हुए जुगनू दोबारा नहीं जलते।


मैं पूरे रस्ते बिट्टू के बारे में सोचता रहा। "हमारे देश में, हम सबके घरों में, हर एक शिक्षासंस्थान (स्कूल या कॉलेज) में हर बच्चा एक जुगनू है जिसे इश्वर ने एक अलग रौशनी से नवाज़ा है, हर कोई अपनी रौशनी में चमक रहा है। बिट्टू की ही तरह। हम सब रौशनी के स्त्रोत हैं। पर धीरे धीरे ये जुगनू बुझ रहें हैं। इनके प्रकाश को रोका जा रहा है। जिस दिन ये सब बुझ गए तो कोई उनसे नहीं कह पायेगा "बुझे हुए जुगनू दोबारा नहीं जलते" (जैसे मैं नहीं कह पाया था बिट्टू से)
 


तारीख: 09.07.2017                                    प्रिंस तिवारी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है