छोटी बहू

छोटी बहू........ आई माँ जी! छोटी बहू....... आई पिताजी! अरे सुनीता मेरी टाई कहाँ है? रोहित चिल्लाया। सुबह पांच बजे जो सुनीता की जिन्दगी शुरू होती तो रात 11 बजे पर जाकर थमती। सुबह शाम घर का पूरा काम और प्रातः 10 बजे से शाम 5 बजे तक आफिस में फाइलों का निस्तारण। यह सब जिम्मेदारी सुनीता ऐसे निभाती कि सभी उसकी तारीफ करते न थकते। आफिस में जो भी उनसे मिलने आता, बस जाकर तारीफ ही करता कि अधिकारी हो तो ऐसी। दो-चार अधिकारी ऐसे ही और हो जायें तो यह देश सुधर जाये। उधर घर में सास-ससुर सुनीता की तारीफ करते न थकते। रोहित भी ऐसी कर्तव्यपरायण व जिम्मेदार पत्नी पाकर अपने को धन्य समझता। बस कमी थी तो एक ही, कि अभी सुनीता की गोद सूनी थी। शादी के सात वर्ष बीत गये थे मगर सुनीता को अभी मातृत्व सुख प्राप्त नहीं हुआ था। बस यही एक कमी पूरे घर को खल रही थी।


मगर सुनीता को इसका कोई मलाल न था। वह आरूढ़ थी अपने कर्तव्य पथ पर। उसको पूर्ण विश्वास था कि ईश्वर के यहाँ देर है पर अंधेर नहीं है। फिर अपने माता-पिता (सास-ससुर) का आशीर्वाद भी तो भगवान के आशीर्वाद से कम नहीं है। एक दिन सुनीता आफिस जाने की तैयारी में थी। अभी उसने बाथरूम में प्रवेश किया ही था कि उसी वक्त ‘सासू माँ’ ने आवाज लगाई, छोटी बहू....... ओ छोटी बहू.......। बाथरूम तक आवाज न पहुंचने पर और कोई प्रत्युत्तर ने मिलने पर फिर उन्होंने बड़ी बहू को पुकारा। बड़ी बहू........, ओ बड़ी बहू......., सासू माँ की यह आवाज बड़ी बहू को बड़ी नागवार लगी। वह व्यंगात्मक लहजे में बोली, क्यों छोटी बहू क्या बच्चे को लोरी देकर सुला रही है, जो मुझे चीख रही हो? यूं तो हर समय छोटी बहू ही जबान पर रहती है। जब वह नही सुनती तब बड़ी बहू याद आती है आपको! बड़ी बहू का यह उत्तर सुनकर सास दयावती को अन्दर तक तीर की तरह बेध गया। फिर भी वह दया करके बोली, ऐसा न बोलो बड़ी बहू। वह तो तुमसे छोटी है। अरे आज नहीं तो कल उसकी गोद भरेगी ही। भगवान तो सबके होते हैं।


इतना सुनते ही बड़ी बहू का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। और चीखती हुई बोली, अरे बांझ भी कभी मां बनती है? तभी सुनीता बाथरूम से बाहर आई और उसने सास-बहू का संवाद सुनकर भी अनसुना कर दिया और बड़ी विनम्रता पूर्वक बोली, बड़ी दीदी मैं आफिस जा रही हूँ। उधर से आपकी दवा व कैन्टीन से मां का च्यवनप्राश भी लेती आऊँगी। अरी जा जा, मेरी चिन्ता छोड़। यह मीठी-मीठी बातों का जादू मेरे ऊपर चलने वाला नही है। पूरे परिवार को पहले ही तूने अपने जाल में फंसा रखा है। तू जा पहले अपनी दवाई की चिन्ता कर। सात वर्ष होकर आठवां लग रहा है, अपना ईलाज करा बांझ कहीं की। इतना सुनने के बाद भी सुनीता चुपचाप आफिस जाने के लिए गाड़ी में बैठ गई। किन्तु जेठानी द्वारा बोले गये शब्द - बांझ कहीं की, बांझ कहीं की, बांझ कहीं की, अन्दर तक उसे झकझोरते रहे। वह कब आफिस पहुंच गई, पता ही न चला। पता तब चला, जब अर्दली ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा, आइये साहब, नमस्ते। अर्दली के इस अभिवादन से मानों सुनीता सोते से जगी और वह गाड़ी से उतरकर अपने आफिस में जाकर धड़ाम से कुर्सी पर बैठ गई, जैसे मानों गिर पड़ी हो। सुनीता का दिनभर काम में मन नहीं लगा। आगुन्तकों से भी कल आने के लिए विनम्रता पूर्वक कहकर सभी को विदा कर दिया।


शाम को जब सुनीता अनमने मन से घर लौटी तो सुबह जेठानी द्वारा छोड़ी गई चिन्गारी ने आग का रूप ले लिया था। जेठानी और सासू मां का वाकयुद्ध थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। सो सुनीता सीधे अपने कमरे में जाकर विस्तर पर लेट गई। तभी घर में रोहित घुसा ही था कि पूरा मामला समझते देर न लगी। और वह पहुंच गया सुनीता के कमरे में और जाते ही बोला आज मैं भाईसाहब से बात करूंगा। बर्दाश्त की भी एक हद होती है। नहीं रोहित, नहीं, कहने से कुछ फायदा नही है। हम दोनों ही अपना ट्रान्सफर करवा लेते हैं। मम्मी-पापा को साथ ले चलेंगे। खूब जमकर सेवा करेंगे उनकी, यह बात रोहित को सौ फीसदी जंच गई। कुछ ही दिनों में दोनों अपने-अपने ट्रान्सफर लेकर आगरा चले गये और लखनऊ में रह गये जेठ-जेठानी और उनके बच्चे।


अभी कुछ दिनों के लिए सुनीता और रोहित अकेले ही गये थे क्योंकि मम्मी-पापा साथ चलने के लिए ना-नुकुर कर रहे थे। सुनीता और रोहत तो ऐसे पितृ और मातृभक्त थे कि बिना मम्मी-पापा के मन ही नहीं लग रहा था। सो पन्द्रहवें दिन ही पहुंच गये मम्मी पापा को लेने। उधर मम्मी-पापा के पन्द्रह दिन मानों पन्द्रह वर्ष के बराबर बीते थे। बड़ी बहू के दुव्र्यवहार ने उन्हें तोड़कर रख दिया था यानि कि सुनीता और रोहित का काम बड़ी भाभी लक्ष्मी ने बड़ा ही आसान कर दिया था। सो रोहित व सुनीता को देखते ही मम्मी पापा ने चलने की हामी भर दी। दूसरे ही दिन चारों प्राणी आगरा आ गये। बस जीवन रूपी गाड़ी सरपट दौड़ती ही जा रही थी कि सुनीता की तबियत अचानक खराब हो गई। उसे अस्पताल ले जाया गया तो डाक्टर ने बताया कि इसमें घबराने की कोई बात नही है, सुनीता मां बनने वाली है। फिर क्या था उस दिन घर में दीवाली मनाई गई थी। रोहित ने ऐसी आतिशबाजी की थी मानों वह अभी पैंतीस वर्ष का नहीं, पन्द्रह वर्ष का किशोर है और मम्मी पापा ने तो रातभर लक्ष्मी पूजन किया था। मानों घर में औलाद का आगमन नहीं, शाश्वत लक्ष्मी का आगमन हो रहा है। इसकी खबर जब रोहित ने अपने बड़े भइया मोहित को दी थी तो मोहित खुशी से झूम गया था मगर उनकी पत्नी लक्ष्मी को तो जैसे सांप सूंघ गया हो। लक्ष्मी तो ऐसी चिन्ताग्रस्त हो गई थी जैसे कंस कृष्ण के जन्म की खबर सुनकर चिन्ता ग्रस्त हो गया था।


नौ महीने कब बीत गये, पता ही न चला। मंगलवार के दिन सुनीता ने एक प्राइवेट नर्सिंग होम में दो जुड़वा बच्चे को जन्म दिया। दोनों ही बड़े मनमोहक व प्यारे बच्चे थे। इनको पाकर दादा-दादी तो जैसे निहाल हो गये। बड़े प्यार से उनका नाम रखा था मनुज और अनुज। बस समय बीतता गया। मनुज और अनुज ने दादा-दादी के संरक्षण में संस्कारों के पालने में फलते-फूलते रहे और बड़े होते गये। इस बीच रोहित व सुनीता का ट्रान्सफर भी कई शहरों में होता रहा। मगर उन्होंने लखनऊ फिर कभी ट्रान्सफर नही लिया। अतः मनुज व अनुज की शिक्षा-दीक्षा भी कई शहरों में हुई। समय तो मानों पंख लगाकर उड़ रहा हो। दोनों बच्चे अपने बाबा-दादी के प्यार व संरक्षण में बड़े होकर ऐसे तेजस्वी बनें कि उन्हें देखते बरबस ही मुंह से निकलता, औलाद हो तो ऐसी! जब रोहित और सुनीता यह सुनते तो विनम्रता पूर्वक कहते कि इसका सम्पूर्ण श्रेय तो मम्मी पापा को जाता है। यह तो उन्हीं के अथक परिश्रम का प्रतिफल है। भला मेरे व सुनीता में न तो इतनी अक्ल है न ही इतना समय था जो इन बच्चों को संस्कार दे पाते। इस बीच मनुज का एडमीशन गोवा में गवर्नमेन्ट इंजीनियरिंग कालेज में हो गया और अनुज का एडमीशन बंगलोर के नेशनल लाॅ कालेज में हो गया। दोनों बच्चे घर से विदा हो गये।

उधर रोहित व सुनीता मम्मी पापा की भरपूर सेवा करते, मगर बाबा-दादी अपने पोतों की याद में अपने को ठगा सा महसूस करने लगे। इसका असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ा, मगर दोनो ही बड़े ईश्वर भक्त थे। सो तीन दिन के अन्तराल पर दोनों ही स्वर्ग सिधार गये। पहले पापा गये और उसके तीसरे दिन ही मम्मी विदा हो गईं। रोहित व सुनीता पर तो मानों पहाड़ टूट पड़ा हो। वह दोनो ऐसे बिलख-बिलख कर रो रहे थे मानों अभी वह दोनो बच्चे हों। मगर यह तो ईश्वर का विधान है जो आया है वो जायेगा ही, इस शाश्वत सत्य को अंगीकार कर एक-दूसरे को समझाया था रोहित व सुनीता ने। फिर बड़े लगन से मम्मी पापा के अन्तिम संस्कारों की तैयारी में जुट गये। उस समय इन दोनो की तैनाती इलाहाबाद में थी सो सभी संस्कार संगम तट पर सम्पन्न हुए थे। तेरहवी संस्कार में आधा आगरा पधारा था और दिन भर प्रसाद वितरण हुआ था। लखनऊ से बड़े भाई मोहित, भाभी लक्ष्मी भी आये थे। मगर उनके चारों बेटों दिनेश, रमेश, महेश और सुरेश ने बाबा-दादी के तेरहवीं संस्कार में आना तक भी उचित न समझा। रोहित को यह बात अच्छी नहीं लगी थी। उसने अपनी शिकायत बड़े भइया से दर्ज करा दी। बड़े भइया इतना सुनते ही फफक कर रो पड़े, मानों उनके धैर्य का बांध टूट गया हो।


बड़े भाई की यह हालत देखकर रोहित को उनके घर की हालत समझते देर न लगी। वह समझ गये कि भइया अन्दर से टूट चुके हैं और वह पीड़ित हैं। इतना सब समझते ही रोहित ने पैर पकड़ते हुए कहा कि भइया क्या बात है? इतना सुनते ही मोहित जैसे फट पड़ा हो, क्या खाक बात है भइया, तुम्हारी भाभी ने घर को नर्क बना दिया है। जो थोड़ी बहुत कसर बाकी थी वो इसकी नालायक औलाद ने पूरी कर दी है। और तुम दोनों ने भी तो मेरी तरफ पलटकर नहीं देखा कि मैं जिन्दा हूँ या मर गया हूँ? नहीं, ऐसा न कहो, भइया, हम तो बड़ी भाभी को खुश देखना चाहते थे। इसी खातिर हम कभी घर नहीं आये। मोहित ने बताया कि तुम्हारी भाभी के लाड़-प्यार ने चारों बेटों को ऐसा बिगाड़कर रख दिया है कि अब उनका लौटना मुश्किल है।


बड़े बेटे दिनेश ने तो घर में काम करने वाले रामू काका की लड़की से लव मैरिज कर ली है और दिनभर आवारा गर्दी करता है और उससे छोटे रमेश ने अपराध जगत में प्रवेश कर लिया है। कई बार जेल जा चुका है। तीसरा और चैथा, महेश और सुरेश पढ़ाई के नाम पर यूनिवर्सिटी में आवारागर्दी कर रहे हैं। जब चाहते हैं मुझे डरा-धमकाकर पैसे ऐंठ ले जाते हैं। अब मुझे भी बैंक ने वी0आर0एस0 दे दिया है। अब औलाद का दुख मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है। बड़े भइया फफक-फफककर रो पड़े। रोहित व सुनीता ने उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा, भइया धैर्य रखो। इसमें भाभी की कोई गलती नही है। यह मातृत्व मोह होता ही ऐसा है कि इस मोह में मां को हित व अनहित दिखाई नहीं देता है। बस उसको तो अपनी सन्तान ही दिखाई देती है। अब मम्मी पापा तो वहां थे नहीं जो बच्चों को संस्कार दे पाते। यहीं चूक हुई है आपसे। आपने भूल से भी कभी आकर यह नहीं कहा कि मम्मी पापा कुछ दिनों के लिए लखनऊ भी चलो। जानते हो भइया, अन्तिम समय में पिताजी को लखनऊ की अपने खून पसीने से बनाये उस घर की व आपकी बहुत याद आई थी। यह कहते-कहते रोहित की आंखे गीली हो गईं। आंसू पोछते हुए रोहित ने कहा कि अब आप एक काम करो भइया-भाभी। अब आप हमारे ही साथ रहो। जब यह चारों अकेले पापड़ बेलेंगे तब अपनी औकात पर स्वयं ही आ जायेंगे और भइया हम भी तो आपके बेटे बहू के समान हैं। अब हमारे मम्मी-पापा तो रहे नही है, अब आप ही हमारे मम्मी-पापा है।


रोहित व सुनीता का इतना बड़ा दिल देखकर भाभी लक्ष्मी की आंखे खुल गई। पश्चाताप के आंसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। तभी सुनीता ने अपने साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए कहा, नहीं दीदी, आपकी इसमें कोई गलती नही है। इतना सुनते ही भाभी लक्ष्मी ने सुनीता को गले लगाते हुए कहा, मेरी छोटी बहू। सुनीता को उस समय ऐसा लगा कि सचमुच ही ‘‘माँ जी’’ उसको पुकार रही हैं - छोटी बहू......। और सुनीता की आंखे इधर-उधर ‘माँ जी’ को ढूंढ़ने में लग गईं।


तारीख: 30.07.2017                                    पंडित हरि ओम शर्मा हरि 









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