कर्ज़ा

“भइया ज़रा ध्यान से, कोई भी पैच न रहे, अच्छी तरह मिक्स कर देना। भोलू को एक लाइन भी पसन्द नहीं“ गुप्ता जी ने पुताई करते हुए मज़दूर से कहा। 

“बाबू जी चिन्ता मत करो। एकदम चकाचक कर दूँगा” मज़दूर ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया। 

“...और हाँ, उधर पूरब वाली दीवार को नारंगी रंग से रंगना, वास्तु के हिसाब से सूर्य की दिशा वाली दीवार नारंगी होना चाहिए...कोशिश करो कि परसों तक सब खत्म हो जाए।“ एक साँस में कहते हुए गुप्ता जी कमरे से बाहर निकल आए।

सुनसान से पड़े बंगले में जैसे बहार आ गयी हो। रामप्रकाश गुप्ता बहुत उत्साहित दिख रहे थे। यूँ तो पहले भी दीवाली आयी थी, पर इस बार की दीवाली में कुछ खास बात थी। पूरे सात साल बाद उनका बेटा प्रतीक अमेरिका से वापस आ रहा था। इसलिए गुप्ता जी न केवल उत्साहित थे, बल्कि बेटे के स्वागत की तैयारियों में भी लगे थे। सात साल पहले जब प्रतीक अमेरिका गया था, तब दीवाली पर बंगला पुतवाया था। उसके जाने के बाद मात्र दो ही प्राणी रह गये थे, तो किसके लिए पुतवाते? दो लोगों में क्या त्योहार और कैसा उल्लास? सच तो यह था कि जब से प्रतीक को अमेरिका भेजा है तभी से दोनों के जीवन का रस, उत्साह, उमंग, उल्लास सब मर चुका था। बस जैसे तैसे जीवन काट रहे थे। संतुष्ट थे कि इकलौते बेटे को किसी लायक बना दिया और अमेरिका भेज दिया।

संतुष्ट भी क्यों न होते उस दौर में गुप्ता जी के सभी मित्रों-सम्बन्धियों के बेटे चीन, जापान, आस्ट्रेलिया में डॉक्टर, इंजीनियर बनकर नौकरी कर रहे थे, तो गुप्ता जी भी पीचे कैसे रहते? लड़के को एम. बी. ए. कराया और सारी जमा पूँजी लगाकर सीधे अमेरिका का टिकट कटवा दिया। हालाँकि प्रतीक ने खुद बहुत मना किया कि “पापा मैं यहीँ इण्डिया में रहकर अच्छी नौकरी पा सकता हूँ, फिर मुझे अमेरिका क्यों भेज रहे हैं?” पर गुप्ता जी ने उसकी एक न चलने दी। आख़िर इज़्ज़्त का सवाल था। अपनी ममता का गला घोंट दिया और प्रतीक को अमेरिका भेजकर ही दम लिया। आज उनके नाते-रिश्तेदारों में वह भी गर्व से बैठने लायक हैं। यह अलग बात है कि प्रतीक के अमेरिका जाने के बाद से उस बंगले में फटकने भी कोई नहीं आता। एक वही था जो सबसे रिश्ता बनाए रखता था, वरना गुप्ता जी का रूखा व्यवहार तो किसी से छुपा नहीं था। 

आज फिर जैसे उस वीरान बंगले में रौनक लौट आई थी। प्रतीक दीवाली पर घर आने वाला था। अभी पिछले हफ्ते जब से उसका फोन आया था बस तभी से गुप्ता जी की बूढ़ी हड्डियों में जैसे नया जोश भर गया था। फौरन ही बंगले का काया पलट करने में लग गये। उद्देश्य केवल दीवाली मनाना नहीं था बल्कि प्रतीक का रिश्ता पक्का करना भी था। दीवाली के बाद ही उसकी शादी रामेश्वर अग्रवाल की बेटी संध्या से करके दोनों पति-पत्नी पूरी तरह से अपने दायित्व से मुक्ति पा लेना चाहते थे। यही विचार कर गुप्ता जी की पत्नी शान्तिदेवी रोज़ बाज़ार के चक्कर लगा रही हैं और गुप्ता जी बंगले की सफाई में लगे हुए हैं। 

“अरे ज़रा देखिए तो रिक्शे वाले को खुले पैसे दे दीजिए.....” की आवाज़ ने बरामदे में खड़े गुप्ता जी का ध्यान दरवाज़े की ओर खींचा। पत्नी के हाथ से कई सारे लिफाफे और पैकेट लेकर पास ही पड़े तख्त पर रख दिए और रिक्शेवाले को पैसे देने के लिए दरवाजे की ओर चले गये। 

Sunoekkahaani

“क्या-क्या खरीद लाई? क्या पूरा बाज़ार खरीद लिया?” दरवाज़े से लौटते हुए गुप्ता जी ने तख्त पर बैठी अपनी पत्नी से पूछा। 

“कुछ भी तो नहीं। बाज़ार घूमते-घूमते मैं तो थक गयी। अब वह आ जाए और संध्या को साथ ले जाकर दोनों की पसन्द की चीज़ें खुद ही ले आए। नये ज़माने और नई पसन्द के लोग हैं, मैं ठहरी पुरानी पसन्द वाली सो मेरी पसन्द तो....”

“...ओफ्फो...तुम औरतों में यही कमी है”, गुप्ता जी ने पत्नी की बात काटते हुए कहा, “अरे पहले उसे आने दो, बात पक्की होने तो फिर....” गुप्ता जी कह भी नहीं पाए थे कि शान्तिदेवी बोल पड़ीं, “हाँ...हाँ... मेरी तो सब आदतें ही खराब हैं। लड़का तो केवल आपका ही है। मेरा तो कुछ भी नहीं...हैं न...।” 

“अच्छा भई नाराज़ मत हो, आई एम सारी। चलो गरमागरम चाय बनाओ।” हँसते हुए गुप्ता जी ने कहा। आज गुप्ताजी के चेहरे की हँसी सचमुच हँसी लग रही थी, वरना तो हँसी भी खुद तरस जाती थी उनके चेहरे पर बिखरने को। 

आज न जाने क्यों गुप्ता जी को भोलू के बचपन की बहुत याद आ रही है। यही वह आँगन है जिसमें हर दीवाली पर वह पटाखे चलाया करता था। आज सबकुछ बहुत याद आ रहा है, वह घूमती हुई चकरी, वह रंगबिरंगे फूल छोड़ता हुआ अनार, फुलझड़ी को घुमाता हुआ भोलू का छोटा-सा हाथ, सारे के सारे दृश्य चलचित्र की भाँति एक-एक करके उनकी आँखों के सामने आने लगे। दस साल का प्रतीक, प्यार से भोलू, पूरे आँगन में दौड़ा-दौड़ा फिर रहा है, “आज तो पटाखे आयेंगे...रात में दिये जलाएँगे...मिठाई खाएँगे...वाह” दौड़कर बार-बार दरवाज़े पर जाता है और लौटकर अपनी माँ को पुकारता है, “मम्मी अभी तक पापा आये क्यों नहीं...कितनी देर हो गयी...मम्मी मैं राकेट चलाऊँगा...देखना ऊपर जाकर उसमें बम फटत है, वही वाला राकेट...पर पापा को इतनी देर क्यों लग रही?” शान्तिदेवी भी मुस्कुराती हुई उसे बताती है, “आ जाएँगी बेटा...अभी आ जाएँगे...पटाखों की दूकान पर भीड़ होती है न...अच्छा चलो इधर आओ तुम्हारी पसन्द के गुलाबजामुन बना रही हूँ...देखो...आओ।”

“अरे वाह! माँ यह दीवाली रोज़-रोज़ क्यों नहीं आती? कितना मज़ा आता न माँ रोज़-रोज़ पटाखे चलाते, मिठाई खाते...हैं न...और हाँ स्कूल की छुट्टी भी रहती।” इस बार प्रतीक की बातों पर माँ ठहाका लगाकर हँस पड़ीं, “अरे मेरे भोले राजा, रोज़-रोज़ कोई भा काम करने से उसका महत्त्व कम हो जाता है, और एक दिन उससे मन ऊबने लगता है। इसीलिए त्योहार भी एक साल के बाद आते हैं, जिससे हम उन्हें नये तरह से मना सकें। समझे।”

“भोलू...” शान्तिदेवी की बात खत्म होते ही गुप्ता जी ने दरवाजे पर आवाज़ लगाई। 
“पापा...ले आये मेरे पटाखे...देखूँ...दिखाओ न...” भोलू चहका। 
“अरे हाँ भई ले आया तेरे पटाखे...अन्दर तो आने दे...उफ! बहुत मँहगाई है...सेब, केला तो जैसे सोने से मढ़े हुए हैं। सौ रुपये, डेढ़ सौ-दो सौ रुपये किलो...उफ! गरीबों का क्या होगा?” बोलते हुए गुप्ता जी ने फलों और अन्य सामान का थैला शान्तिदेवी को थमा दिया जबकि पटाखों वाली पालीथीन भोलू ने झटक ली। भोलू एक-एक करके पटाखों के डिब्बे निकालता, उन्हें देखता और फिर से उसी पालीथीन में रख देता। 

घर की साफ-सफाई में दिन बीता और एक ओर शाम ने साँवला आँचल ओढ़ा तो दूसरी ओर शान्तिदेवी लाल सुर्ख़ जोड़ा बहने हुए आँगन में आईं, “अरे सुनिये...भोलू...आओ...पूजा करें...दिए जलाएँ...उसके बाद पटाखे चलाना...आ जाओ जल्दी।” गुप्ता जी, जो कि सामने बगीचे में भोलू के साथ पटाखों का आनन्द ले रहे थे, शान्तिदेवी की आवाज़ सुनते ही भोलू को लेकर पूजा करने चल दिए। मंदिर वाला कमरा फूलों और बिजली की झालरों से सजा है, सामने लक्ष्मी-गणेश की सुन्दर प्रतिमाएँ लाल चौकी पर रखी हैं। उनके सामने पूजा का सारा सामान क्रमशः रखा हुआ है-- एक कटोरी में चाँदी के सिक्के, एक थाली में मिठाइयाँ, एक में फल, एक में फूल-हार आदि सारा सामान करीने से सजा हुआ। शान्तिदेवी के साथ गुप्ता जी और भोलू भी पूजा करने बैठ गये। सामने ढ़ेरों मिट्टी के दीवे देखकर भोलू ने आश्चर्य से कहा, “अरे मम्मी इतने सारे दीवे...!” “हाँ बेटा! इस साल तू दस साल का होकर ग्यारहवीं में लग रहा है न इसलिए मैंने घी के ग्यारह सौ दीवे जलाने की मन्नत माँगी है,” कहते हुए शान्तिदेवी ने चौकी के सामने सिर झुका दिया। विश्वास में अद्भुत शक्ति होती है, यही विश्वास पत्थर को भगवान बना देता है, मन्नतों को पूरा करवा देता है और तो और ईश्वर को भी इंसान का रूप रखकर इस धरा पर आने को विवश कर देता है। 

एक-एक करके दिये जलने लगे और रोशनी फैलने लगी। गुप्ता जी ने क्रमशः गणेश-लक्ष्मी व अन्य देवी-देवताओं का पूजन किया और आरतियाँ गायीं। मिठाई बाँटी गयी और दीपावली की शुभकामनाएँ प्रेषित की गयीं। भोलू तो जैसे मौके की तलाश में था, दो गुलाबजामुन मुँह में भरे और दो दोनों हाथों में ले लिये। “आराम से बेटा” कहते हुए दोनों पति-पत्नी फूले नहीं समाते। “अच्छा चलो पटाखे चलाते हैं,” कहते हुए गुप्ता जी दोनों को बगीचे में ले आये। 

देर रात तक पटाखे चलाना, थक जाना और थककर सो जाना...गुप्ता जी बरामदे में बैठे एक-एक करके यह सब याद करते, मुस्कुराते और कभी-कभी खुद ही बड़बड़ाते जाते। जब तक प्रतीक यहाँ रहा हर साल ऐसी दीवाली मनाई थी। लेकिन उसके अमेरिका जाने के बाद...जैसे सबकुछ वीरान हो गया। दीवाली पर दिये तो जलते पर उनकी रोशनी फीकी रहती थी। गुलाबजामुन की मिठास तो प्रतीक अपने साथ ही ले गया। सोचते-सोचते आँखों में नमी उतर आई फिर आँखें पोंछी और पुताई करते हुए मज़दूर पर नज़र दौड़ाकर मन-ही-मन सोचने लगे, ‘लगता है पूरे सात साल बाद इस साल फिर से वैसी ही दीवाली आई है। इस आँगन में फिर से वही रौनक लौटकर आने वाली है।’ ऐसा विचार आते ही गुप्ता जी के चेहरे पर चमक आ गयी। इसी बीच शान्तिदेवी चाय के दो प्याले लेकर आ पहुँचीं, “क्या बात है? बड़े खुश नज़र आ रहे हैं?” 


“खुश तो तुम भी हो। अरे भई बेटा आ रहा है, वह भी पूरे सात साल बाद। खुश क्यों न होऊँ?” गुप्ता जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा। 
“सचमुच लगता है जैसे कल की ही बात हो...कितना समय बीत गया...पूरे सात साल...” कुछ रुककर शान्तिदेवी ने बात आगे बढ़ाई, “अच्छा सुनिए! आपने उसे बता तो दिया है न कि संध्या से...।” 
“अरे इसमें बताने की क्या बात है? पूरे दो महीने यहाँ रुकेगा। तभी लड़की उसे दिखा देंगे और तुरन्त ही सारी रस्में पूरी करके हफ्ते भर में शादी। वैसे भी आजकल चटमँगनी पट ब्याह का रिवाज़ सारे रिवाज़ों पर भारी है। वह समय गया जब तीन पक्ष, पाँच पक्ष की सगाई हुआ करती थी। अब तो सुबह गोद भरो और शाम को बारात लेकर लड़की के घर...बस ‘गाँठ’ मजबूत होनी चाहिए।” गुप्ता जी ने बात पूरी की। 

“सो तो है पर अगर कहीं संध्या भोलू को पसन्द न आई तो?” शान्तिदेवी ने आशंका जताई। 
“कैसी बातें कर रही हो? भोलू ने आजतक हमारा कहा टाला है? और संध्या कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं है...एम.बी.ए. पास है...फर्स्ट डिवीज़न...देखने-भालने में भी हजारों को मात करेगी...देख लेना भोलू कभी मना नहीं करेगा।” गुप्ता जी ने पूरे विश्वास से कहा। 

“भगवान करे ऐसा ही हो...” शान्तिदेवी कह ही रही थीं कि पुताई वाला मज़दूर आ गया, “बाबू जी देख लो भइया का कमरा एकदम चकाचक कर दिया है।” 

“अच्छा ठीक है, अब तू बाहर की पुताई कर और सुन आज बाहर निपटा कर ही जाना। चाहे तो ओवर टाइम कर लेना”, गुप्ता जी बोले। हामी भरता हुआ मजदूर सामान लेकर बाहर की तरफ चल दिया।

‘आज धनतेरस है। पर भोलू अभी तक आया क्यो नहीं? उसने तो कहा था कि दीवाली से तीन दिन पहले इण्डिया आ जाएगा। फिर...शायद दिल्ली आ चुका हो...पर फोन तो...’ मन में बातें उठतीं और उनके साथ एक टीस भी। चाय में भी मज़ा नहीं आ रहा था। अखबार भी बाजार के भरे होने की खबर, सोना-चाँदी पर डिस्काउंट, फ्रिज, टी0वी0 काम्बो ऑफर आदि की खबरों से भरे पड़े थे। अखबार में दीवाली की रौनक साफ दिखाई दे रही थी, लेकिन गुप्ता जी को सब सूना और बेकार-सा लगने लगा था। मन में उथल-पुथल मची थी कि तभी शान्तिदेवी बोलते हुए आईं, “अरे सुनिये... ज़रा यह गुलाबजामुन चखिए तो...ठीक बने हैं न...क्या हुआ कोई परेशानी है?”

“अ...हाँ...बोलो क्या कह रही हो?” गुप्ता जी की तन्द्रा मानों एकदम टूटी, “क्या हो गया...कुछ भी तो नहीं।”
“भोलू का इन्तज़ार कर रहे हैं क्या? अरे आ जाएगा। हो सकता फ्लाइट लेट हो। आप तो बहुत जल्दी घबरा जाते हैं। मुझसे पूछिये मैं तो माँ हूँ...” कहते हुए आँखें धुँधला गयीं और आवाज़ भर्राने लगी लेकिन खुद को सम्हालते हुए शान्तिदेवी ने गुलाबजामुन की कटोरी गुप्ता जी की ओर बढ़ा दी। और खुद पल्लू के किनारे से आँखें पोंछने लगीं। गुप्ता जी ने गुलाबजामुन का स्वाद लेकर और विषय बदलते हुए कहा, “वाह! तुम्हारे हाथों का जवाब नहीं।...तुम ठीक कहती हो, शायद यही कारण होगा, वरना तो अब तक आ जाता।” खुद को समझाते हुए गुप्ता जी अन्य कामों में व्यस्त हो गये। दिन बीत गया। रातभर कान दरवाज़े और फोन की घंटी पर लगे रहे, लेकिन आँखों ने धोखा दे दिया और कब लग गईँ पता ही नहीं चला। 

“अरे सुनिये...उठिये...कब तक सोते रहेंगे?” शान्तिदेवी की आवाज़ ने गुप्ता जी को उठाया। 
“कितने बज गये?” सकपका कर पूछते हुए गुप्ता जी उठ बैठे। 
“साढ़े आठ...सुनिये ज़रा पता करके देखिए कि क्या हुआ भोलू अभी तक आया क्यों नहीं? अब तो मुझे भी चिन्ता होने लगी है।” शान्तिदेवी ने घबराते हुए कहा।
“हाँ देखता हूँ, पर किससे पता करूँ...कहाँ पता करूँ...अमेरिका फोन करूँ या फिर... उफ क्या मुसीबत है? सबकुछ अंधेरे में लग रहा है।” गुप्ता जी बेचैन हो उठे। इस बार शान्तिदेवी भी अधीर थीं। आखिर करें तो क्या? कहाँ पता करें? कहाँ फोन करें? अमेरिका से अब तक प्रतीक ने जितने भी फोन किये थे सब अलग-अलग नम्बरों से थे। किस नम्बर पर फोन करें कुछ पता नहीं चल रहा था। दोनों असहाय से कभी बगीचे में टहलते तो कभी दरवाज़े तक जाते। गुप्ता जी तो सड़क के मोड़ तक भी कई बार हो आए थे। 

समय बीतता जा रहा था और दोनों की अधीरता बढ़ती जा रही थी। न खाना बनाने का मन था न ही कुछ खाने का। बेमन से टी0वी0 देखने बैठे कि अचानक फोन का रिसीवर उठा लिया, “हे भगवान्! यह तो डेड पड़ा है। अगर भोलू ने फोन किया भी होगा तो...उफ यह फोन भी अभी...” गुप्ता जी एकदम बोल पड़े। 

“कितनी बार कहा है कि इसे कटवाकर मोबाइल ले लो...पर आप तो...अब जाइए ठीक करवाइए इसे। पता नहीं भोलू ने कितना फोन किया होगा और बेचारा परेशान हो रहा होगा।” शान्तिदेवी ने कहा। “मैं एक्सचेंज जाकर कम्प्लेने करता हूँ,” कहते हुए गुप्ता जी तुरन्त बाहर की ओर चल दिये। अभी सड़क पर कुछ ही दूर बढ़े होंगे कि देखा कुछ मज़दूरों और टेलीफोन के कर्मचारियों के बीच बहस हो रही है। एक कर्मचारी मज़दूर पर गर्म होकर बोल रहा था, “कौन है ठेकेदार नाम बताओ ज़रा। पता नहीं कैसा गड्ढा खुदवा दिया फाइबर केबल काट के रख दिया...पता है कितना टाइम लगेगा इसे ठीक करने में?” गुप्ता जी ने रुककर उनकी बहस सुनी और समझ गये कि टेलीफोन का अण्डर ग्राउंड केबल कट गया है और पाँच-सात दिन से पहले फोन ठीक होने वाला नहीं। उनका दिल बैठने लगा, ‘अब क्या होगा? 

भोलू फोन करेगा तो...फोन तो डेड है...उफ क्या करूँ?’ वापस घर की ओर चल दिये। शान्तिदेवी को दरवाज़े पर खड़ा देख आँखें छलछलाने लगीं। गला रुँधने लगा। घर आकर पत्नी को सब बताया और सब्र करके बैठ गये। मन में रह-रहकर हूक उठती। लगता था किसी ने कलेजे पर पत्थर रख दिया है। समय काटे नहीं कट रहा था लेकिन फिर भी शाम हो ही गयी। अचानक याद आया कि आज तो छोटी दीवाली है। देहरी पर दीपक रखना है। शान्तिदेवी बुझे मन से दीपक जलाने की तैयारी करने लगीं। जैसे तैसे दीपक जलाकर देहरी पर ही बैठ गयीं। भोलू के बचपन के दिन याद आने लगे जब वह इस दीपक की रखवाली करता था। क्योंकि उसकी दादी ने बताया था कि छोटी दीवाली वाले दिन यदि यह दीपक कोई चुरा ले तो बहुत बुरा होता है। लक्ष्मी जी नाराज़ हो जाती हैं। बस इसी बात को बालमन में गाँठ की तरह बाँध लिया था भोलू ने। इधर शान्तिदेवी ने दीपक जलाकर देहरी पर रखा और उधर भोलू ने उसकी पहरेदारी शुरू की। नम आँखों में दीपक की रोशनी फैलने लगी। इस बार शान्तिदेवी के सब्र का बाँध टूट गया चुपचाप देहरी पर बैठी आँसू बहाती रहीं और उस घड़ी को कोसती रहीं जब उसे अमेरिका भेजा था। 

रात काटे नहीं कट रही थी। रह-रहकर बुरे विचार मन में आ रहे थे। साथ ही दोनों खुद को समझाते भी थे कि कल दीवाली पर तो आ ही जाएगा। इसी तरह एक दूसरे को समझाते हुए न जाने कब दोनों सो गये। पटाखे की तेज़ आवाज़ से अचानक दोनों की आँख खुल गयी। देखा सुबह के सात बज चुके थे। शान्तिदेवी एकदम उठ बैठीं और सड़क से आने वाली पटाखों की आवाज़ को कोसने लगीं, ‘पता नहीं लोगों को त्योहार का कितना भूत चढ़ा है। सुबह-सुबह पटाखे चलाने लगे।’ शान्तिदेवी बड़बड़ाती हुई बरामदे में आईं, देखा लकड़ी के तख्त पर करीने से लगे ग्यारह सौ दीये उनका मुँह ताक रहे थे। इस बार भी शान्तिदेवी ने ग्यारह सौ घी के दीये जलाने थे क्योंकि प्रतीक की शादी की मन्नत माँगी थी। शान्तिदेवी दीवों के पास आ गयीं और बेमन से एक-एक करके गिनने लगीं। दरवाज़े पर होती हर आहट पर मन में आशा की हल्की सी लहर उठती और उनका ध्यान दीओं से हटकर दरवाज़े पर चला जाता। हर आहट पर सोचती, ‘आ गया’ पर अगले ही पल आशा निराशा में बदल जाती और चेहरे पहले से अधिक बुझ जाता। नैराश्य की पीड़ा सहन करते हुए दीओं को यूँ ही छोड़ वह रसोई में चली गयीं। 

अब तक गुप्ता जी भी जम्हाई लेते हुए बरामदे से बाहर निकल आए और तख्त पर पड़े अखबार को उठाकर फोन के पास यह सोचते हुए चले गये, ‘देखूँ ठीक हुआ या नहीं?’ रिसीवर उठाते ही चीख पड़े, “अरे फोन ठीक हो गया...चलो सुबह-सुबह कुछ तो अच्छा हुआ।...अरे सुनती हो...देखो फोन ठीक हो गया।” लेकिन उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला तो गुप्ता जी स्वयं रसोई घर की ओर चल दिये। वहाँ जाकर देखा कि पुत्र के बिछोह की आँच ने माँ के कलेजे पर रखी बर्फ को पिघल कर शान्तिदेवी की आँखों से बह रही थी। शान्ति देवी की मनोदशा देखते ही गुप्ता जी झूठी खुशी की तितली उड़ गयी और उड़ गया सब्र का छाँजन। बस फिर क्या था वे भी वहीं बैठ गये और दोनों एक दूसरे को देख-देखकर रोने लगे। खूब रोये...एक दूसरे से लिपट-लिपट कर रोए। इतना रोए कि आँसुओं के नमकीन स्वाद में गुलाबजामुन की मिठास फीकी पड़ गयी। आँसुओं की धार गंगाजमुना सी बह निकलीं। बस एक ही बात दोनों के मुँह से निकलती, “आया क्यों नहीं?” इसके बाद रोने की आवाज़ आने लगती। बीच- बीच में शान्तिदेवी गुप्ता जी को उलाहना देतीं, क्यों भेजा मेरे लाल को इतनी दूर...तरस गयी मैं उसे देखने के लिए...काश उसकी बात मान लेते...पर आप को ही अपनी झूठी शान दिखाने की पड़ी थी...रिश्तेदारों में अपना मान बढ़ाने की पड़ी थी। मेरे इकलौते लाल को माँ से दूर कर दिया। अपनी जिद में सुख-चैन लुटा दिया आपने... गुप्ता जी ने कोई उत्तर नहीं दिया बस दहाड़ मारकर रो पड़े। रह-रहकर हूक उठती और दोनों दुगने वेग से रोने लगते। 

रोने की आवाज़ उस सूने घर में इतनी गूँजने लगी कि यह भी नहीं सुन पाये कि कब दरवाज़ा खुला और कब प्रतीक बरामदे में आकर, “मम्मी-पापा कहाँ हैं आप?” पुकारते हुए रसोईघर में आ गया। अचानक से उसे अपने सामने देखकर कुछ पल के लिए दोनों का रोना थम गया, लेकिन अगले ही पल दोनों उससे लिपट कर रोने लगे। प्रतीक बार-बार पूछता, क्या बात है? आप लोग रो क्यों रहे हैं? लेकिन सिसकियों को बीच बस एक ही बात मुँह से निकली, “बेटा...तुम...कब...” और इसके बाद फिर रोने लगे। प्रतीक ने भी दोनों को आलिंगनबद्ध कर लिया। आँसू अभी भी बह रहे थे, लेकिन अब बहने वाले आँसू दुख और वियोग के नहीं थे बल्कि खुशी के थे। क्योंकि दुःख और आँसुओँ का जितना कर्ज़ा था उसे तो दोनों कुछ क्षण पहले अदा कर चुके थे। सड़क से आने वाली पटाखों की आवाज़ से और तख्त पर रखे घी के दीवे देखकर लग रहा था कि दीवाली आ गयी।
 


तारीख: 09.09.2015                                    डॉ. लवलेश दत्त









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