पत्थर

“अभी और कितना चलना है?” 

“अभी तो चढ़ाई शुरू हुई है। अभी तो बहुत है। पूरे चौदह किलोमीटर है। अभी तो केवल आधा किलोमीटर ही चढ़े हैं।....क्या थक गईं?” 

“हाँ...चलो...कोई बात नहीं... तुम साथ हो तो सारी जिन्दगी ऐसे ही चल सकती हूँ।” कहकर हाँफते हुए नेहा ने सुशील का हाथ थाम लिया। सुशील भी उसे अपने पास खींचकर उसके कमर में हाथ डालकर उसे लेकर आगे बढ़ने लगा।

सुशील और नेहा के विवाह को आठ साल हो चुके थे लेकिन उनके कोई संतान नहीं हुई। बहुत इलाज करवाया। तंत्र-मंत्र-यंत्र सभी आज़मा के देख लिये लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ। उस दिन रामा मौसी ने बातों-बातों में बताया कि उनके जेठ के बेटे चन्दन की बहू को शादी के दस साल बाद पिछले महीने पहले लड़का हुआ है। यह सुनकर नेहा ने उत्सुकता से पूछा, “अच्छा मौसी...किसका इलाज करवाया?” मौसी ने हँसते हुए कहा, “इलाज तो बहुतेरा करवाया था, लेकिन सब बेकार। बेचारे दोनों मियाँ-बीबी मायूस हो चुके थे और एक बच्चा गोद लेने की तैयारी कर रहे थे कि तभी हमारे पारिवारिक गुरू स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का घर आना हुआ। उनके सामने बच्चा गोद लेने की बात जेठ जी ने कह दी। 

हालाँकि स्वामी जी ने उसे नेक काम बताया लेकिन साथ ही साथ यह भी कहा कि ऐसी मान्यता है कि जो मन में जिस किसी भी कार्य का संकल्प लेकर बाबा केदारनाथ के तीन साल लगातार हर साल दर्शन करता है तो बाबा केदारनाथ उसी मनोकामना अवश्य पूरी करते हैं। अगर चंदन चाहे तो यह भी करके देख ले। बस चंदन और उसकी बहू तीसरी बार दर्शन करके घर आये ही कि दो ही महीने में उसने खुशखबरी दे दी। और पिछले महीने लड़का हो गया। अब तो जेठ जी खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे हैं।“

रात में नेहा ने सुशील को रामा मौसी की कही हुई सारी बातें बताईं। पहले तो सुशील ने मना किया लेकिन नेहा का मन और विश्वास देखते हुए उसने ‘हाँ’ कर दी और कहा कि ‘मन छोटा मत करो। इस बार कपाट खुलते ही हम चलेंगे।‘ “कब खुलते हैं कपाट?” नेहा ने झट पूछा। “अक्षय तृतीया पर इस साल 26 अप्रैल को है, तभी चलेंगे।“ सुशील ने नेहा को आश्वस्त करते हुए अपनी बाहों में भर लिया। 

यह सुशील और नेहा की केदारनाथ की तीसरी यात्रा थी। नेहा के बीमार होने के कारण इस बार कपाट खुलने के अवसर पर नहीं जा पाये थे। अतः इस वर्ष दोनों ने जून माह में केदारनाथ की यात्रा की योजना बनाई। शाम का समय था। अस्तगामी सूर्य की किरणों से लाल-लाल लगते वर्फ का आवरण ओढ़े तटस्थ और शान्त पहाड़ किसी तपस्वी की भांति शिवाराधना में लीन हर आने-जाने वाले का मन मोह रहे थे। बम-बम भोले का उद्घोष करते श्रद्धालु एक-एक कदम बढ़ते जा रहे थे। 

ठंडी हवा से शरीर में सिहरन पैदा हो रही थी। सुशील ने नेहा को अपनी जैकेट पहना दी। “अरे, ठंड बहुत है और आप...” कहते हुए नेहा ने जैकेट सुशील को वापस कर दी। “चलते रहने से शरीर में गर्मी पैदा हो रही है और ठंड का अहसास नहीं हो रहा” कहते हुए सुशील ने पूछा, “कुछ चाय-वाय लोगी?” 

“हम्म...” कहकर नेहा पास ही पड़े एक पत्थर पर बैठ गयी। उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं।

“क्या हुआ...बहुत थक गयीं? अच्छा थोड़ा सुस्ता लो...मैं चाय लाता हूँ” कहकर सुशील सामने की दूकान पर चाय का आर्डर देने चला गया। 

सामने बैठी नेहा के पार्श्व में सुन्दर झरना देख सुशील ने उसके फोटो लेने लगा। नेहा भी उसे अलग-अलग पोज़ दे रही थी कि तभी चाय वाले ने दो चाय उसे लाकर दी। वहीं पत्थर पर बैठकर दोनों चाय पीने लगे।

“एक बात कहूँ?” नेहा ने सुशील से कहा। 

“हमारी शादी को आठ साल से भी ज्यादा हो गये हैं लेकिन आज भी तुम पहले की तरह कोई भी बात कहने से पहले यह ज़रूर कहती हो, ‘एक बात कहूँ’...अरे कह दिया करो जो मन में आये...अच्छा बताओ क्या है?” सुशील ने हँसते हुए कहा। 

“यह हमारी तीसरी यात्रा है न?” नेहा ने पूछा। 

“हाँ...तो...” चाय का घूँट निगलते हुए सुशील ने कहा। 

“इस यात्रा के बाद तो...” शर्माते हुए नेहा ने सुशील से नज़रें हटा लीं। 

“ओफ्फो...तो मैडम जी यह सोच रही हैं कि तीसरी यात्रा होने के बाद आपकी गोद में शिव जी का प्रसाद आ जाएगा....हा हा हा...” सुशील ने जोरदार ठहाका लगाया।

नेहा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, “जी नहीं...” “तो फिर क्या है...यही संकल्प करके तो हमने अब तक की दोनों यात्राएँ की हैं... क्या इसके अलावा भी कुछ है?” सुशील अभी तक हँस रहा था। 

नेहा ने हल्के से सुशील की पीठ पर कोहनी मारते हुए कहा, “जी नहीं...प्रसाद आ नहीं जाएगा...बल्कि आ गया है...” कहकर नेहा उठकर आगे बढ़ गयी। 

सुशील खुशी और आश्चर्य से भर गया, “क्या...अरे सुनो तो स्वीटहार्ट...तुमने तो खुश कर दिया...सच कहो....”

नेहा तेज़-तेज़ कदम बढ़ाते हुए आगे बढ़ रही थी और पीछे से सुशील ने उसे पीछे पकड़ लिया, “ओह स्वीटी...तुमने तो...” “क्या है...छोड़िए न...सब देख रहे हैं“ नेहा ने उसे पीठे ठेलते हुए कहा। 

आने जाने वाले लोग उन्हें देखकर हँसते हुए चल रहे थे। “कबसे...बताओ तो” सुशील ने नेहा का हाथ थामते हुए कहा। 

“तीसरा महीना है...” नीची नज़र से कहते हुए नेहा ने सुशील के कंधे पर सिर रख लिया। सचमुच बाबा केदारनाथ की महिमा अपार है। अभी तो तीसरी यात्रा पूरी भी नहीं हुई और... सुशील भावुक हो उठा, “बोलो, बाबा केदारनाथ की...” “जय...” उसके साथ चलने वाले सभी यात्रियों ने जयकारा लगा दिया। दुगुने उत्साह से दोनों आगे बढ़ने लगे।

सूर्यास्त हो चुका था और मार्ग में धीरे-धीरे अँधेरे में विलीन होने लगा था। बिजली की चमक से रास्ता दिखाई देता। मौसम बिगड़ने लगा था। लगातार बादल गरज रहे थे और हल्की-हल्की बूँदाबाँदी भी रुक-रुक कर हो रही थी। बिजली भी दोनों चलते-चलते निढाल हो चुके थे लेकिन मंदिर अभी भी चार किलोमीटर दूर था।

“अब नहीं चला जा रहा” नेहा ने एक बड़े से पत्थर को काटकर बनी बैंच पर बैठते हुए कहा और अपनी शाल को अपने से अलग करते हुए हाँफने लगी, “थोड़ा...पा...नी...दीजिए।” 

सुशील भी उसी बेंच पर बैठ चुका था। नेहा की बात सुनकर पीठ से पिठ्ठू उतारते हुए पानी की बोतल निकालने लगा, “सच में यार इस बार तो बहुत थकावट हो रही है...मौसम भी खराब हो रहा है। देखो बिजली चमक रही है...।” 

नेहा ने पानी पीते हुए आसमान की ओर देखा, “हाँ, मौसम तो बहुत खराब हो रहा है। अभी तो चार किलोमीटर और जाना है...हम पहुँच तो जाएँगे न?” “हाँ...भगवान चाहेंगे तो ज़रूर पहुँचेंगे...आओ धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहें” कहकर सुशील ने नेहा का हाथ पकड़कर उसे उठाया और दोनों भारी कदमों से आगे बढ़ने लगे कि आसमान में बहुत जोर की बिजली चमकी और एक भयानक शोर हुआ, मानों कहीं कोई पहाड़ टूटा हो। 

दोनों एकदम चौंक गए और डर के मारे किनारे पड़ी एक बड़ी सी चट्टान के सहारे खड़े हो गये। नेहा ने घबराकर सुशील को कस कर पकड़ लिया, “हे भगवान्! क्या हो रहा है यह?” अब तो सुशील भी घबराने लगा था। नेहा को कस कर पकड़ते हुए उसने कहा, “लगता है प्रलय आएगी। अब आगे बढ़ना ठीक नहीं होगा। चलों यहीं बैठ जाते हैं।” दोनों वहीं चट्टान के किनारे बैठ गये। 

उनको बैठे हुए अभी दस मिनट ही हुए होंगे कि एकदम बारिश शुरू हो गयी। बहुत तेज़ पानी की धारा ऊपर से आने लगी। उधर मंदाकिनी नदी का जल स्तर भी एकाएक बढ़ने लगा। सुशील ने घबराकर कहा, “नेहा लगता है कोई बड़ी मुसीबत आने वाली है। अब तो बिल्कुल भी आगे नहीं जाना चाहिए। बस जैसे-तैसे रात कट जाए सुबह पता चलेगा कि हालात क्या हैं? तभी सोचेंगे...” सुशील अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था कि भागो-भागो, बचाओ-बचाओ का बहुत भयानक शोर सुनाई दिया। 

अँधेरे की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन भयानक शोर से किसी अनहोनी का अंदेशा लग रहा था। नेहा और सुशील तुरन्त खड़े हो गये। इधर-उधर देखने की कोशिश की लेकिन अँधेरे की वजह से कुछ पता नहीं चल रहा था। सुशील ने अपने बैग से टार्च निकाली और दृश्य को देखते हुए उनके रोंगटे खड़े हो गये। उन्होंने देखा कि बहुत से लोग तेजी से बहते हुए पानी के साथ फिसलते-गिरते और बहते हुए ऊपर की तरफ से लुढ़कर कर नीचे आ रहे हैं। 

सुशील ने तुरन्त नेहा को चट्टान को कस कर पकड़ने के लिए कहा और खुद भी नेहा के ऊपर से चट्टान से चिपक गया। दो ही मिनट में ऊपर से बहकर आते मलबे ने उनके पैरों को जकड़ लिया। मलबे की चिकनेपन की वजह से दोनों के पैर बार-बार फिसल रहे थे। सुशील जैसे-तैसे खुद को और नेहा को सम्भाले हुए था। लोगों के बहकर आने और मलबे में दबने के कारण दोनों बहुत बुरी तरह डरे हुए थे। अभी तीन घंटे पहले जिस सुन्दर प्रकृति का आकर्षण लोगों को अपनी ओर खींच रहा था वही अब विकराल रूप धारण कर चुकी थी और मौत का भयानक खेल उनके सामने शुरू कर चुकी थी। सुशील और नेहा के घुटनों तक मलबा आ चुका था। सुशील और नेहा कई बार फिसलने से बचे थे। 

दोनों के पैर बुरी तरह मलबे में जकड़ चुके थे। सुशील लगातार नेहा से कसकर पकड़े रहने के लिए कह रहा था, “नेहा...छोड़ना मत...कसककर पकड़े रहना...ज़रा सा भी हाथ छूटा नहीं कि हम दोनों...” नेहा ने छट से सुशील को कस कर पकड़ लिया और बुदबुदाई, “हे भोलेनाथ! हम पर कृपा करो...” उसकी आँखों में आँसू आ गये। 

सुशील की आँखें भी नम हो रहीं थीं। भयानक चीखें रोम-रोम में भय पैद कर रहीं थीं। उधर मंदाकिनी भी उफान पर थी। सैकड़ों फीट गहरी खाई में पानी इतना भर चुका था कि आसपास के विशालकाय पत्थर उसमें डूबने लगे थे। मंदाकिनी की गर्जना और उसमें ऊपर से बहकर आते पत्थरों के टकराने से होने वाली धड़ाम-धड़ाम आवाज़ दिल को बैठाए दे रही थी। इधर लगातार कीचड़-मिट्टी और पत्थरों से बना मलबा बह रहा था जो अपने साथ लोगों को भी बहाकर लिए जा रहा था। 

उस भयानक अँधेरी रात में कुछ भी नहीं दिख रहा था बस, कभी ‘मम्मी बचाओ’, कभी ‘बेटा बचाओ’ तो कभी ‘हे भगवान! बचाओ’ की ध्वनि ने नेहा और सुशील को रोने पर मजबूर कर दिया। दोनों एक दूसरे को कस कर पकड़े हुए थे। सुशील ने नेहा से कहा, “लगता है हमारी मृत्यु आ गई है। अब तो भगवान से यही प्रार्थना है कि अगर हम मरे भी तो साथ-साथ ही रहें। कहीं ऐसा न हो कि...।” “बस करिए, प्लीज़ ऐसा मत कहिए भगवान से प्रार्थना करिए कि हम...” 

कहकर नेहा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। उन्हें हर अगला पल उन्हें काल के मुख में प्रवेश करता हुआ लग रहा था। कि अचानक जिस चट्टान से वह चिपके खड़े उससे किसी बड़े पत्थर के टकराने की आवाज़ आई और दोनों झटके से चट्टान से अलग हो गये। चट्टान से अलग होते ही अत्यधिक चिकनाई के कारण उनके पैर फिसल गए और वे दोनों भी मलबे के साथ बहने लगे। “हे भगवान! बचाओ...” दोनों के मुँह से निकला और दोनों की चीख निकल पड़ी। 

एक दूसरे को कस कर पकड़े हुए दोनों बुरी तरह मलबे से लिथड़ चुके थे। एक दूसरे को पकड़ पाना मुश्किल हो रहा था बार-बार हाथ फिसल रहा था। फिर भी दोनों एक दूसरे को पकड़ने और बचाने की पूरी कोशिश कर रहे थे। उनके साथ और भी लोग थे जो पीछे से बहकर आ रहे थे। उनमें से अधिकांश या तो बेहोश थे या मर चुके। क्योंकि उनके शरीर लगातार नेहा और सुशील से टकरा रहे थे लेकिन उनसे किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। 

सुशील ने खुद को नियंत्रित किया। अपने विवेक का प्रयोग करके अपना सिर ऊपर उठा लिया और नेहा से भी सिर ऊठाए रखने को कहा, “नेहा मलबे से सिर ऊपर उठाए रखना नहीं तो यह मलबा हमारे आँख नाक मुँह और कान में चला जाएगा और हमारी दम घुट जाएगी। जब तक हम कोशिश कर सकते हैं खुद को जिन्दा रखेंगे। आगे भगवान...” इतना कहा ही था कि मलबे में फिसलते हुए सुशील का पैर एक पत्थर पर टिक गया। सुशील ने तुरन्त पत्थर पर पैर टिकाकर नेहा को अपने पास खीँचा और जैसे-तैसे उस पत्थर से टिक कर बैठ गया। 

नेहा उसकी गोद में अर्ध्दमूर्च्छित अवस्था में पड़ी थी। सुशील ने उसे गाल को थपथपाया, “नेहा...नेहा...देखो डार्लिंग हम अभी तक ज़िन्दा हैं...हम...हम...बच गये...” सुशील बुरी तरह हाँफ रहा था। “अँ...ऊँ...अँ...” बेसुध नेहा सिर्फ इतना ही बोल पा रही थी। 

सुशील ने उसे गले से लगा लिया और पत्थर पर पीछे सिर करके अपनी साँसों को नियन्त्रित करने की कोशिश करने लगा। धीरे-धीरे पूरे वातावरण में शिथिलता आने लगी और सुशील की आँख भी लग गई। सुबह का दृश्य देखते ही मानो दिल के दो टुकड़े हो गए। दृश्य अत्यन्त भयावह था। जहाँ-तहाँ लोगों के शव मलबे में दबे हुए थे। किसी का हाथ मलबे से बाहर था तो किसी का सिर। किसी की टाँगें तो किसी की पीठ। इंसान के वेश में कुछ जानवर भी उस मलबे में दबे लोगों की जेबें टटोल रहे थे। 

कोई बचाव कार्य का बहाना बनाकर मरे हुए या बेहोश यात्रियों के बैग खोल रहा था तो कोई महिला के हाथों-कानों में पड़े आभूषण नोच रहा था। लूटने-खसोटने के क्रम में अचानक किसी का हाथ नेहा के कुंडल पर पड़ा तो वह एकदम होश में आकर चीख पड़ी। उसके चीखते ही सुशील की आँख खुल गई और लुटेरा नेहा का कुंडल वहीं फेंक कर भाग गया और आगे जाकर गिर पड़ा। बचाव दल और सेना के लोग राहत कार्य में जुटे थे। 

उन्होंने तुरन्त उस लुटेरे को अपनी गिरफ्त में ले लिया। इतने में सुशील पूरी ताकत से उठ खड़ा हुआ और सेना के जवान को अपनी ओर बुलाया। जवान ने उसे और नेहा को उस वहाँ से सुरक्षित निकाल लिया। और ऊपर की ओर ले जाकर बैठाते हुए कहा कि अभी हैलीकॉप्टर के आते ही आपको नीचे पहुँचा दिया जाएगा। सुशील और नेहा ने राहत की साँस ली। वहाँ पहले से ही मौजूद लोग रात की घटना के बारे में आपस में बात कर रहे थे। 

कोई कह रहा था कि ‘केदारनाथ मंदिर से तीन किलोमीटर ऊपर तालाब में ग्लेशियर टूट कर गिरने से यह आपदा आई। यह तो अच्छा हुआ कि एक बहुत बड़ा पत्थर मंदिर के ठीक पीछे आकर रुक गया जिससे मलबे और पत्थरों से भरी बाढ़ से मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ। सुना है कि वह पत्थर भगवान शिव के डमरू के आकार का है जिसने उस मंदिर की रक्षा की। धन्य है भगवान की माया। कौन कहता है पत्थर में भगवान नहीं होता?‘ सुशील और नेहा ने एक दूसरे की ओर देखा कि तभी हैलीकॉप्टर की आवाज़ आने लगी।

हैलीकाप्टर में चढ़ते समय नेहा और सुशील ने नीचे पड़े उस पत्थर की ओर मुड़कर देखा जिसने रातभर उनको अपने ऊपर टिकाए रखा था। उनके मन में तरह-तरह के विचार उठ रहे थे जिसमें एक विचार यह भी था कि अब जीवन में कभी इस ओर पलटकर नहीं आएँगे और न ही किसी को आने देंगे। लेकिन न जाने क्यों उस अजनबी की बातें उन्हें सही लग रही थीं कि ‘पत्थर में भी भगवान होते हैं।‘ बारी-बारी से सुशील और नेहा ने हैलीकॉप्टर से नीचे झाँककर एक बार फिर उस पत्थर को देखना चाहा, लेकिन इस बार उसे देखकर दोनों की आँखें न जाने क्यों नम हो आईं थीं।


तारीख: 09.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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