सबसे बड़ा रिश्ता

 

वो शायद 15 दिसम्बर की रात का समय था। ठन्ड बहुत थी, घरों के सामने घना कोहरा था और उनके सामने जलती हुई बत्तियाँ मोमबत्ती की लौ की तरह लगती थीं। मैं छत पर था। पूरी बाजू का स्वेटर पहने और हाथों को जेबों में डाले, सिकुड़ा सा जाता था। वैसे तो कानपुर में ‍क़ाफी ठन्ड पड़ती है लेकिन पनकी, जोकि नया बसा हुआ रिहाइश इलाका है, अपनी विरल बसावट के कारण बहुत ठन्डा रहता है। इतनी ठण्ड के बावजूद मैं छत पर था कुछ सोचता हुआ सा। कभी-कभी ऐसा होता है कि आप अकेले रहना चाहते हैं, शान्त माहौल में, सबसे दूर, जहाँ किसी भी तरह का कोई शोर ना पहुँच पाता हो। और फिर हमारा घर तो वैसे भी काफी शान्त था। माँ सोने जा चुकी थीं और पिताजी हमेशा की तरह अपनी किताबों में उलझे थे। 

मेरे पिताजी ने बैंक से अपने रिटायरमेंट के बाद मिली जमापूँजी से २५० गज मैं एक बड़ा मकान बनवाया था। जिसमें बस हम ३ लोग रहते थे , मेरे पिताजी, माताजी और मैं। पिताजी अपना अधिकतर समय किताबों के साथ बिताते थे। उनके पुस्तकालय में एक अच्छा खासा संकलन था। माँ ने अपना सारा जीवन घर को बनाने, पिताजी का साथ निभाने और मुझे पालने मैं लगा दिया था। मैं भी माँ को अपने सबसे करीब महसूस करता था, अपना सबसे अच्छा दोस्त मानता था। वो भी मेरी हर जायज-नाजायज मांग पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। मैं भी हर संभव कोशिश करता था कि उनसे कुछ भी ना छुपाऊं।

रात के १ बजे थे और मेरी आँखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी। ठण्ड बढ़ चली थी। कभी-कभी शीत लहर से पूरे शरीर में सिहरन दौड़ जाती थी। आकाश निःशब्द था और सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। मैं ऊपर क्यों था? जब सारी दुनियाँ नींद की आगोश में थी। सब लोग दिनभर की थकान दूर करने के लिये जल्दी ही बिस्तरों में चले गये थे। क्या सब लोग?

शायद कोई मेरी तरह जाग रहा हो। हाँ, शायद।

वो मेरी ही क्लास में थी। स्कूल के दिन थे। वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। निशा नाम था उसका। हम हमेशा साथ रहते, साथ घूमते, हँसी-मज़ाक़ करते, दोस्तों के साथ मिलकर एक दूसरे को चिढ़ाते। छोटी सी तो दुनियाँ हुआ करती थी। इसी को हम जीना समझते थे। मुझे याद है कि एक बार स्कूल में खेलते समय मैं गिर गया था और मेरे सर पर चोट लग गयी थी, काफी खून बहने लगा था। निशा ऐसे घबरा गयी थी जैसे वो चोट उसी को लगी हो। मेडिकल रूम से निकलने से लेकर घर पहुँचने तक वो मेरे साथ रही थी। मैं घर पर था और पूरे दिन मैं ४-५ बार उसका फोन आया था। एक ही सवाल था ‘ निशीथ कैसा है आण्टी?’ एक बार क्लास में होमवर्क ना करके आने की वजह से क्लासटीचर ने मुझे काफी देर तक कान पकड़ के खड़ा रखा, मुझे बहुत बुरा लगा था। मैं लगभग रुहाँसा हो गया था। उस दिन मैंने निशा से कोई बात नहीं की थी मानो उसी की गलती हो। वो भी शायद मेरी हालत समझ रही थी और शायद यह सोच कर कि मुझे बुरा लगेगा, चुप सी थी। अपनी उम्र के हिसाब से बहुत समझदार थी। 

ऐसे ही ना जाने कितने मौकों पर उसने मेरा साथ दिया था। मैं भी उसको लेकर काफी रक्षात्मक था और कई अवसरों पर अधिकारपूर्वक ख़ुद को सबके सामने प्रस्तुत कर चुका था। जिस दिन निशा स्कूल में नहीं आती थी मुझे ना जाने क्यों अकेलापन सा लगता था। वैसे तो क्लास में मेरे और भी दोस्त थे लेकिन शायद निशा की उपस्थिति ने बाकी सबको प्रभावहीन बना दिया था। मेरे हृदय का एक बड़ा हिस्सा निशा ने कब अपना बना लिया था, पता ही नहीं चला। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ रही थी मैं खुद को निशा के और करीब पा रहा था। शायद यह रिश्ते के परिवर्तन का समय था। समझ परिपक्व होने में समय लगता है और इस परिपक्वता की परिभाषा सबके लिये अलग-अलग होती है। मैं भी खुद को नासमझी में समझदार मानने लगा था। हो भी क्यों ना, आखिर हर बच्चे को ऐसी अनुभूति होती है कि वो बड़ा हो गया है, बावजूद इसके कि उसके परिवार वाले समय-समय पर उस उसकी क्षुद्रता का एहसास करा देते हैं। 

काफी साल ऐसे ही लड़ते-झगड़ते, घूमते-फिरते, हँसते-रोते साथ-साथ निकलते रहे। मेरा परिवार काफी प्रगतिशील विचारों का प्रतिनिधित्व करता था, नतीजतन मुझे अपने फ़ैसले लेने की काफी आज़ादी प्राप्त थी। मुझे अपनी किसी भी मांग के लिये कभी भी बहुत पूछना या संघर्ष करना नहीं पड़ा। बहुत बार तो मुझे सिर्फ उनको बताना पड़ता था। जिसमें मुझे उनका मेरी समझदारी के ऊपर विश्वास कम, उनका प्यार ज़्यादा लगता था।

उधर मेरे विपरीत निशा उतनी स्वच्छंद नहीं थी। उसके माता-पिता लड़कियों के ज़्यादा खुलेपन के ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि हर परिवार की एक मर्यादा होती है और हर रिश्ते की एक सीमा, जिसको जब-जब लांघा जायेगा परिवारों और रिश्तों में विघटन पैदा होगा ही होगा। शायद वो सही भी होंगे पर उस समय हमें उनकी बातें और कुछ चीज़ों को लेकर उनकी व्याख्या समझ नहीं आती थी। मेरे पास भी शायद इससे अच्छा पर सबसे प्रचलित शब्द या शायद सबसे घिसा-पिटा शब्द नहीं है ‘ जेनरेशन गैप। 

खैर, इन सब के बीच पता नहीं कब मेरे दिल में ऐसी भावना ने घर बना लिया कि अब जब भी मैं उसके सामने जाता था मेरी आँखें झुक जाती थीं, मेरे भीतर परीक्षा के पहले की सी घबराहट होने लगती थी, मुँह से बोल नहीं निकलते थे। हमारा मिलना अब रोज़ नहीं हो पाता था, ये अलग बात है, फिर भी में अकसर इस परिवर्तन के बारे में सोचा करता था। निशा के बारे में सोचकर मुझे अच्छा ही लगता था पर ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा था कि जिस लड़की के साथ मैं बचपन से अब तक रहा हूं , बड़ा हुआ हूं, उसके सामने जाने पर ऐसी घबराहट क्यों?? शायद मैं उसे मन ही मन चाहने लगा था। अच्छी तो वो मुझे हमेशा ही लगती थी मगर ये चाहत कुछ और ही थी, ये पक्का था। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ था।

लेकिन निशा के मन में क्या था मैं नहीं जानता था और जानने की कोशिश करने से डरता था। वो जब भी मुझसे मिलती थी बस किसी न किसी बात को लेकर हँसती रहती, कुछ नहीं तो मुझे देख कर ही जैसे मैं कोई जोकर था। अब मैं सोचता हूं कि शायद मैं ही अजीब सा बर्ताव कर रहा था, शायद मैं अपनी मौलिकता खो रहा था, पर उसके ऊपर मेरा नियंत्रण ही नहीं था। मगर जो भी हो रहा था मैं उसके साथ बस बहता जा रहा था, अपनी खुशी से।

जब भी वो मुझे मिलती मैं बातें करने के साथ-साथ उसकी सुन्दरता का आंकलन करता रहता था, बादाम जैसी उसकी तेज़ आंखें, तीर सी तनी हुई उसकी भौंहें, थोड़ी सी ऊपर की और उठी हुई उसकी नोकीली नाक, नाक और उसकी ठोड़ी के बीच उसके सधे हुए सुन्दर, पतले, निर्दोष, त्रुटिहीन होठ जैसे किसी चित्रकार ने अपने सर्वश्रेष्ठ स्केच में केन्वस पर उतारे हों, उसके प्यारे कोमल से हाथ और उनमें पतली-पतली लम्बी उंगलियाँ, उसका हमेशा मुस्कुराता चेहरा, उसकी मौलिक, निश्छल हँसी.....क्या-क्या बताऊं? मैं कितना भी लिखूं लेकिन सुन्दरता की व्याख्या नहीं की जा सकती, सुन्दरता सिर्फ और सिर्फ महसूस की जा सकती है। कई बार सोचा कि सुन्दरता की व्याख्या करने के बजाय उसकी आलोचना करके देखा जाये लेकिन आपको विश्वास करना पड़ेगा कि मैं बुरी तरह असफल रहा।

काफी दिनों तक मेरे दिल में निशा के प्रति प्यार पलता रहा पर अनजाने कारणों की वजह से कभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका। हम मिलते, बहुत सी बातें मैं जो सोच के जाता कि आज कहूँगा कि “ निशा, पता नहीं कब, लेकिन मुझे तुमसे प्यार हो गया है। तुम्हीं मेरी सोच हो और तुम्हीं मेरा निश्चय हो, तुम्हीं मेरा रास्ता हो और तुम्हीं मेरी मंज़िल हो। निशा, तुमने मेरे अंतर के तारों को झंकृत कर ऐसा संगीत उत्पन्न किया है जिसे मैं जीवनभर गुनगुनाना चाहता हूं।” लेकिन शायद मौन ही मेरी नियति थी, मौन ही मेरी भाषा थी और मौन ही मेरा अंजाम था। वो अपने घर की एक-एक बात मुझसे कहती, कुछ भी नहीं छुपाती। 

बहुत बार अपने साहस की परीक्षा लेने और असफल होने के बाद मैंने अपने मन की सारी भावनाऐं उसे एक पत्र में लिखने का निश्चय किया और पूरे ४ पन्नों में मन की हर भावना को मोतियों की भांति प्रेम के पवित्र धागे में पिरो कर एक रहस्यमयी बन्द लिफाफे में रखकर निशा से मिला। वो अकसर अपने घर के पास वाले पार्क में अपने कुत्ते को टहलाने आती थी। कुछ समय पहले तक, जब मैं बोल सकता था, वहीं बैठकर हम दोनो अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों की याद किया करते थे। उस दिन मैं ज़्यादा कुछ बात नहीं कर पाया, शायद मुझे अपनी क़मीज़ में छुपाये हुए उस पत्र को निशा को देने की जल्दी थी और मैं बिल्कुल बेसब्र हुआ जा रहा था। रिश्ते का परिवर्तन जो मैं लम्बे समय से महसूस कर रहा था, निशा के भीतर उसी परिवर्तन को मैं देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था कि निशा कैसे खुद को दर्शायेगी, कैसे शर्मायेगी, क्या वो सारे बंधन तोड़कर, बिना कुछ आगे की सोचे मेरे गले से लिपट जायेगी। मैं खुद को निशा की जगह रखकर एक अनवरत और गहरी सोच में डूब गया था, मैं अगर उसकी जगह होता तो कुछ सोचता ही नहीं, बस उसे गले लगाता और चूम लेता, मेरे लिये तो ये मनचाही मुराद पूरी होने जैसा था। हम लड़के शायद ऐसे ही होते हैं, हमारी बनावट ऐसी ही होती है, आज जो चाहिये बस वो मिल जाये, बाकी जो होगा, देखा जायेगा।

यही सब सोचते हुए चलते समय मैंने उसे वो बंद लिफ़ाफ़ा दिया तो वो कुछ संशय, कुछ अचंभे से मेरी तरफ देखते हुए थोड़ी शैतानी भरी आवाज़ मैं बोली “क्या है इसमें निशीथ, हाँ, बोलो बोलो।” मैं आज तक पूरी तरह नहीं समझ पाया कि क्या वो मेरी मंशा या इरादा वो लिफ़ाफ़ा देखकर समझ गयी थी और उस गंभीर माहौल को हल्का करने के लिये और मेरी हृदय गति, जो कि संभवतः १३०-१४० के बीच रही होगी, को सामान्य करने के लिये उस तरह से बच्चों की तरह मुझे छेड़ रही थी या वो ऐसे ही था। निशा की समझ को देखते हुए पहली वाली संभावना सत्य प्रतीत हो रही थी। जो भी हो, मैं इससे ज़्यादा और कुछ कह ही नहीं पाया कि “घर जाकर खोलना ना, प्लीज़।” उसने मुझ पर रहम खाते हुए हँसकर बोला “ओ.के. बाबा, चलो बाय, कल मिलती हू।” मैं उसे ओझल होने तक अपलक देखता रहा, तीर कमान से निकल चुका था और अब मैं एकदम विचारशून्य या दिग्भ्रमित सा खड़ा था। अब मैं कुछ नहीं कर सकता था। आखिर ये भी मेरे लिये उतना आसान नहीं था। उस दिन मैं एक बात और समझा कि जब हम कोई काम अनजाने में करते हैं तो हम सामान्य होते हैं पर जब हम जानबूझ कर कुछ करते हैं तो उसके परिणाम को लेकर हम बहुत अधीर होते है। उसी तरह जब मैं पहले निशा से मिलता था मैं सामान्य था मगर अब सब बदल चुका था।

उस दिन उसने भी मुझे ओझल होने तक दो बार पलट कर देखा, शायद मेरे बदले हाव-भाव को समझने की कोशिश कर रही होगी। मैं धीरे-धीरे अपने घर की और चल पडा। अजीबोग़रीब ख़्याल मेरे दिमाग़ में बार-बार दस्तक दे रहे थे। एक बारगी विचार आया कि वो बड़े गुस्से में आयी और मेरे गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा मारा और मेरी चिट्ठी को फाड़कर उसके टुकड़े मेरे मुँह पर मारकर चली गयी। “ऐसा नहीं हो सकता” मैं सोचता। फिर सोचता कि वो हँसते हुए आयी और मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर, उन्हें चूमकर बोली “तुम तो बड़े छुपेरुस्तम निकले, निशीथ। मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतने रोमेन्टिक भी हो सकते हो। पर इतना सा कहने में इतनी देर, पागल हो तुम एकदम।” 

और फिर में खुशी से पागल हो जाता। ऐसे न जाने कितने ही ख्याल मेरे दिमाग़ में आते रहे और ख़्यालों के इस अंतर्प्रवाह के साथ मैं घर पहुँच गया। माँ सोफे पर बैठी चाय पी रहीं थी। एक और प्याला चाय वहाँ मेज़ पर रखी हुई थी। उसके ऊपर पड़ी हुई चॉकलेट रंग की मलाई उस पर बीते इंतज़ार की कहानी ख़ुद ही बयाँ कर रही थी। शायद उसे मेरा ही इंतज़ार था। माँ ने मुझे अपने पास बैठने का इशारा किया। मैं अनमना सा, गुमसुम सा उनके पास बैठ गया और चाय हाथ में ले ली। चाय मुझसे पी ही नहीं जा रही थी। मैं तो उस वक़्त कहीं और ही था।

तभी माँ बोलीं “कहाँ हो, पीते क्यूं नहीं” फिर थोड़ा छेड़ते हुए बोलीं “प्लीज़, डोंट टैल अस यू र इन लव।” मैं चौंक गया “आपको कैसे पता?” अचानक मुँह से निकल गया। ये घबराहट में की हुई एक गलती थी। माँ ने मुस्कुराकर मेरी तरफ देख के कहा “भइ, हमें पहले से बता देना, ऐसा न हो कि हम कहीं पक्का कर दें, बी वैरी फ्रैंक, वी आर प्रोग्रेसिव एण्ड विल गो विद योर चोइस।” मैं चुप था। और फिर चाय का प्याला हाथ में लेकर सीढ़ी चढ़ता हुआ बोला “माँ, कल बताऊंगा।” मैं छत पर निकल गया और तब से मैं छत पर ही था। माँ सो चुकी थीं पर मेरी आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था, एक अजीब सी बेचैनी थी, आज का सारा दिन बहुत ऊहापोह भरा था, बहुत अन्तर्द्धंद से गुज़रा था। बाहर तो कोहरा था ही, मेरे मन में भी आज घना कोहरा था। कुछ भी स्पष्ट ना दीखता था, फालतू की अटकलें लगाता रहा, सोचता रहा कि इस समय वो मेरे बारे में क्या सोच रही होगी। थोड़ी बढ़ी हुई हृदयगति के साथ बार-बार मेरा पत्र पढ़ रही होगी जैसे पिछली बार में कुछ रह तो नहीं गया। 

अगले दिन परेड पर ट्रीट नाम के रेस्टोरेन्ट में शाम ५.३० बजे का मिलने का मैंने उसे लिखा। एक तो इसलिये कि इस समय यहाँ भीड़भाड़ नहीं होती, दूसरा ये कि सेल्फ सर्विस है तो बार-बार कोई आपको ऑर्डर के लिये तंग नहीं करता है और कम से कम आप आराम से बैठ कर बात कर सकते हैं।

मेरी घबराहट इसी बात से समझी जा सकती थी कि बहुत नियंत्रण करने के बावजूद भी मैं ४.०० बजे से ही रेस्टोरेन्ट के बाहर बेचैनी से टहल रहा था। आज भी पिछले २ दिनों की तरह धूप के दर्शन नहीं हुये थे सो बहुत ठण्ड थी, ये और बात है कि जब आप अन्दर से घबराये हुये होते हैं तो गर्मी में भी आपको कँपकँपी महसूस होती है और सभी ने बिना किसी अपवाद के इस कँपकँपी को कभी ना कभी महसूस किया होगा। उसका जवाब क्या होगा, मुझे इस बात की चिंता थोड़ी कम थी पर स्वीकार्य कैसा होगा ये जानने की उत्सुकता बहुत थी। उसका जवाब क्या होगा, शायद हमारी १८-२० साल पुरानी क़रीबी दोस्ती को देखते हुये, इसका अन्दाज़ा लगाना थोड़ा आसान था। कुछ देर बाहर घूमने के बाद मैं रेस्टोरेन्ट के अन्दर एक कॉफी लेकर अपनी चिर-परिचित टेबल पर जाकर जम गया। धीरे-धीरे कॉफी के सिप लेते हुये सोच रहा था कि आज निशा क्या पहन के आयेगी, उदास आयेगी या ख़ुश होगी, आयेगी भी या नहीं। आशानुरूप वहाँ इक्के-दुक्के लोग ही थे। 

आख़िर ५.२० बजे वो रेस्टोरेन्ट मैं आयी, मेरी आंखें दरवाजे पर ही थी। क्रीम कलर का सूट, अफग़ानी सलवार, लम्बा दुपट्टा, गोल्डन रंग की मोजरी और ऊपर से काले रंग का कार्डिगन पहने, आज निशा रोज़ से कई गुना सुन्दर लग रही थी। जानबूझ के निकाली गई एक छोटी सी लट बार-बार उसके श्वेत वर्ण गालों को स्पर्श करने का असफल प्रयास कर रही थी जिसको निशा ना चाहते हुये भी अपनी उंगलियों में फंसा कर कान के पीछे करने लगी थी। काफी सामान्य लग रही थी। उसने मुझे देखा और मेरे सामने वाली कुर्सी पर आकर बैठ गयी। बोली “तुम कब आये, कब से बैठे हो?” “बस अभी-अभी आया।” मैंने झूठ बोला था। “तुम क्या लोगी?” मैंने पूछा “सेम ऐज़ यू” निशा के इस उत्तर के साथ ही शायद सारी औपचारिकताऐं समाप्त हो गयीं थी। 

दोनों शान्त थे। शायद एक-दूसरे से पहल की आस लगाये थे। कुछ देर बाद उसने मेरे हाव-भाव देखते हुये चुप्पी तोड़ी “निशीथ, मैं कुछ दिनों से तुम्हें समझ रही थी लेकिन ना समझने का अभिनय कर रही थी, इस पल को टालने की कोशिश कर रही थी लेकिन ये तो जैसे होना ही था। तुम बहुत अच्छे हो, शायद मेरे लिये सबसे अच्छे, तुम ही बताओ कि तुम्हारे साथ मैंने अपनी ज़िन्दगी के सबसे ज़्यादा साल बिताये हैं, मेरे माता-पिता के अलावा, तो मेरे लिये तो तुम ही सबसे बेहतर हुए ना, तुम मुझसे प्यार करते हो और मैं भी तुम्हें बहुत पसन्द करती हूं। कैसे कहूं.................................” 

उसका गला रुँध रहा था “लेकिन निशीथ हम पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होते हैं, हम परिवार से जुड़े होते हैं, हम समाज से जुड़े होते हैं और सबकी हम से कुछ उम्मीदें होती हैं और जहाँ उम्मीदें होती हैं वहाँ हमारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं। मेरे मम्मी-पापा ने मुझे अपने ग़ुरूर की तरह पाला है, इतना विश्वास किया है जितना शायद मेरा भी ख़ुद पर नहीं है। मैंने भी हमेशा उस विश्वास को बनाये रखने के लिये, क़ायम रखने की, अपनी सामर्थ्य से कई गुना ज़्यादा मेहनत की है।”

वो बोलती जा रही थी “निशीथ मैं तुम्हें हमेशा एक ऐसे साथी के रूप में देखना चाहती हूं जो हमेशा एक दोस्त की तरह मुझे संभाले, मुझे बल दे और जो हर परिस्थिति में मेरे साथ रहे, मेरा साथ निभाये.................................. लेकिन क्या पति-पत्नी का रिश्ता ही सबसे ज़रूरी है, क्या दोस्ती का रिश्ता इस रिश्ते से बड़ा नहीं होता है। हाँ निशीथ, दोस्ती का रिश्ता ही सबसे बड़ा रिश्ता होता है, मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मुझे तुम जैसा दोस्त मिला है और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती..........मुझे डर है कि अगर मेरे घरवालों को इस बात का पता चला तो उनका भरोसा मुझ पर से हमेशा के लिये ख़त्म हो जायेगा, हमारे पिछले बीते हुये इतने स्वर्णिम साल संदेह के घेरे में आ जायेंगे, हमारे रिश्ते की मर्यादा टूट जायेगी और कोई भी हमारे इस अग्नि की तरह पवित्र रिश्ते पर सवाल खड़ा करे तो हमारे लिये और हमारे इस रिश्ते के भविष्य के लिये अच्छा नहीं होगा.............नहीं, हम ऐसा नहीं होने देंगे, हम अपने बीच यही रिश्ता रखेंगे, वादा करो निशीथ.............अब हम दोनों रो रहे थे....मेरी आंखों के आगे अँधेरा छा रहा था............दिल फटा सा जा रहा था.....

थोड़ी देर के बाद भावनाओं का ये सैलाब थोड़ा सा मद्धिम हुआ......... “तुम बुरा तो नहीं माने” वो बोली, मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर थोड़ा सा ही मुस्कुरा सका “निशीथ, मैंने अपना जीवनसाथी चुनने का ये अधिकार मेरे माता-पिता को दे रखा है।”

“एक वादा करोगे मुझसे” उसने पूछा, मैंने सहमति में सिर हिलाया “तुम मुझसे पहले की तरह ही मिलते रहोगे, पहले की ही तरह मेरा साथ निभाओगे, मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ोगे, अपनी कोई बात कभी भी मुझसे नहीं छुपाओगे और मैं भी तुमसे ये वादा करती हूं कि तुम मुझे हमेशा अपने करीब पाओगे” वो मुझे हल्का महसूस करवाने के लिये बोल रही थी। 

मेरी धड़कनें अब लगभग सामान्य हो रहीं थीं। उसने मेरा हाथ अपने हाथों में ले रखा था। अब मुझे कोई घबराहट नहीं थी। आंखों में बसा कोहरा अब छंट चुका था। शायद मेरे लिये रिश्ते के परिवर्तन के कारण। मैं अब इस सबसे बड़े रिश्ते को महसूस कर रहा था, जहाँ सिर्फ और सिर्फ मौलिकता थी, भोलापन था और अब एक नयी ताज़गी हरतरफ थी। सबसे बड़ा रिश्ता.................

कॉफी पी ही नहीं गयी थी, आँसू मोती बनकर टेबल पर चमक रहे थे। हम दोनों साथ-साथ रेस्टोरेन्ट के बाहर आये। मैंने बेमन से घड़ी की तरफ देखा, ७.३० बजे थे, सड़कों पर कोहरा पसर रहा था। मेरे दिल में जिस नये रिश्ते की कल्पना साकार रूप लेने लगी थी, घने कोहरे में कहीं खो गयी थी।

अब एक नये रिश्ते का उत्स चारों और था, अचानक उसने मुझे छेड़ा, मैं हँसा, लेकिन आंसूं अभी तक थमे नहीं थे.....
 


तारीख: 10.06.2017                                    मनीष शर्मा









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