उसकी बातें

“सब सही से तो रख लिया?” सूटकेस और बैग उठाते हुए मैंने श्रीमती जी से पूछा।

“हाँ, सब सही है।“

“रास्ते के लिए खाना, पानी और...।“

“हाँ-हाँ रख लिया”, इस बार आवाज़ में झल्लाहट-सी थी, “अब चलो भी।“

“अरे! पैसे कहाँ हैं?” मैंने धीरे से कहा।

“आपको ही दिये थे।“

मैंने पैंट की दोनों जेबें ऊपर से ही टटोलीं, “हाँ ठीक है।“

सड़क पर आकर रिक्शा किया और पत्नी व बिटिया के साथ जंक्शन के लिए रवाना हो गया।

“कहीं रुक कर बिस्कुट, चिप्स और कोल्ड्रिंक्स ले लेंगे”, मैंने कहा।

“कहीं गाँव में तो जा नहीं रहे और फिर ट्रेन में सबकुछ मिलता है”, श्रीमती जी ने समझा दिया। 

दो दिन बाद साले साहब की शादी थी और हम लखनऊ जा रहे थे। उचित समय पर हम जंक्शन पहुँच गये। रिक्शे वाले को पैसे देकर हम प्लेटफार्म पर पहुँचे। ट्रेन चूँकि बरेली से ही बनकर चलती थी। ट्रेन खड़ी थी, अतः कोई परेशानी नहीं थी। हम आराम से सामने के ही डिब्बे में चढ़ गए। कोई खास भीड़ भी नहीं थी सो सीट आसानी से मिल गयी। बिटिया तो झट से खिड़की की तरफ जाकर बैठ गयी और बाहर झाँकने लगी। मैं भी साथ ही बैठ गया। घड़ी की तरफ देखा, “अभी पन्द्रह मिनट हैं, गाड़ी चलने में” किसी के न पूछने पर भी मैंने अपना ज्ञान सिद्ध कर दिया। इतने में श्रीमती जी का फोन बज उठा और उन्होंने फोन कान से चिपका लिया, “हाँ मम्मी, ट्रेन में ही बैठे हैं...चार...साढ़े चार घण्टे में पहुँच जाएँगे। मुरादाबाद से जीजी-जीजा जी आ गए क्या?....” 

बातों का न टूटने वाला सिलसिला चल पड़ा। मैंने प्लेटफार्म पर झाँकना शुरू कर दिया। एक व्हीलर से अखबार खरीदा और उसे पलटना शुरू कर दिया। समय के साथ ट्रेन हिली और बैठे हुए यात्रियों में कइयों के मुँह से निकल पड़ा, “चल दी।“ कोई बोला पाँच मिनट “लेट छूटी” तो किसी ने कहा, “अरे! कल तो आधा घंटा लेट थी फिर भी कवर कर लिया।“ इन्हीं बातों के साथ ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली। अब तक श्रीमती जी की बातें खत्म नहीं हुईं थीं लेकिन फिर भी उन्होंने “शोर बहुत आ रहा है बाद में बात करेंगे...बाय”, कहते हुए फोन बन्द कर दिया और अपने बड़े से बटुए में रख लिया। उसके साथ ही बिस्कुट का एक पैकेट निकाला और बिटिया जो ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँककर बहुत खुश हो रही थी, उसे पकड़ा दिया। 

मैं अखबार में ही लगा था और बीच-बीच में अपनी पैंट की जेब टटोलकर महसूस करता रहा कि पैसों की गड्डी सुरक्षित रख तो है। वैसे भी ट्रेन में ज़हर खुरानों और जेबकतरों की घटनाएँ आम हैं। गाड़ी की रफ्तार कुछ कम पड़ने लगी। पता चला कि कोई स्टेशन आने वाला है। “फरीदपुर आ रओ है...”’ एक देहाती छाप अधेड़ ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा। श्रीमती जी बड़बड़ाईं, “ए भइया, ये बीड़ी यहाँ मत पियो।“ “अच्छा साब” कहकर वह दरवाजे की ओर चला गया। मैं अखबार से बोर हो चुका था लेकिन करूँ क्या श्रीमती जी से सुबह-सुबह झड़प हो चुकी थी इसलिए उनसे ज्यादा बोलने की मुझमें हिम्मत नहीं थी और उनकी मुझसे बोलने की इच्छा नहीं थी। 

दरअसल उनकी मर्जी थी कि वह एक हफ्ता रुकेंगी और मैंने कहा कि “मैं तुम्हें छोड़कर चला आऊँगा।“ बस इसी बात पर वे अपने इधर-उधर, यहाँ-वहाँ सभी जगह के रिश्तेदारों के नाम गिनाने लगीं जिनमें अधिकांश जीजा जी थे। मुझ चिढ़ होने लगी और मैंने रुकने के लिए साफ मना कर दिया। बस फिर क्या था उनका मूड खराब। खैर, सफर तो करना ही था। 

मैं इधर-उधर बगलें झाँकने लगा और साथ बैठे यात्रियों की बातों में दिलचस्पी लेने लगा। सभी विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे थे। लेकिन प्रायः सभी घूम फिर कर राजनीति पर अपनी बेबाक राय दे रहे थे। किसी की राय थी कि कांग्रेस सबसे भ्रष्ट सरकार है तो कोई सपा और बसपा पर झींटाकशी कर रहा था। किसी ने तो भाजपा की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी। एक सज्जन तो स्वयं को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा समझने लगे और देने लगे देश और सरकार चलाने के टिप्स। वैसे भी आज हर क्षेत्र में टिप्स की बहुत वैल्यू है। अच्छा खाना बनाने से लेकर कपड़े पहनने, नहाने-धोने, हँसने-मुस्कुराने आदि सभी के टिप्स आसानी से मिल जाते हैं और देश को चलाने के टिप्स तो हर राह चलते आदमी से पूछे जा सकते हैं। 

लोकतंत्र का मतलब किसी को मालूम हो या न हो लेकिन लोकतंत्र चलाने के टिप्स उसे अवश्य ही आते होंगे। खैर, उन सज्जन की बातें सरपट दौड़ रही थीं लेकिन रेलगाड़ी ने अपनी गति धीमी कर दी। संभवतः अगला स्टेशन आ रहा था। गाड़ी धीमी हुई और शाहजहाँपुर का पीला-काला बोर्ड स्टेशन पर दिख गया। किसी के मुँह से फिर निकला “शाहजहाँपुर आ गया।“ जैसे गाड़ी तो चली नहीं बस शाहजहाँपुर चलकर गाड़ी के पास आ गया। बाहर प्लेटफार्म पर भीड़ थी, गाड़ी धीमी होते-होते रुक गयी और लोग डिब्बे के गेट पर लगे डंडाले को पकड़कर डिब्बे में चढ़ने लगे। कुछ उतरने वाले भी डिब्बे के गेट पर खड़े हो गये। “आराम से”, “संभलकर”, “ज़रा उतरने दो भैया” आदि-आदि की आवाज़ें आना शुरू हो गयीं। डिब्बा चहलकदमी और शोरशराबे से भर उठा। लगभग दो मिनट के बाद गाड़ी ने सीटी दी और रेंगना शुरू कर दिया। कुछ ही पलों में गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। धीरे-धीरे डिब्बे में सबकुछ सामान्य हो गया। 

एक आदमी मेरे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गया। चेहरे से बेचैन और थका हुआ-सा लग रहा था। गले में एक लाल अँगोछा पड़ा था जिससे वह बार-बार अपना मुँह पोंछ रहा था। कुछ घबराया हुआ मालूम पड़ता था। बड़ा डरा-डरा और सकपकाया-सा इधर-उधर देखता और फिर दोनों बाहों में सिर डालकर बैठ जाता और नींद का एक लम्बा झोंका लेने के बाद अचानक घबरा कर उठ बैठता। लगभग आधे घंटे से मैं उसकी यह हरकत देख रहा था। 

गाड़ी बहुत अच्छी रफ्तार से चल रही थी। श्रीमती जी ऊँघ रही थीं। मैंने इशारे से उन्हें जगाया और यह बताकर कि मैं टॉयलेट जा रहा हूँ। मैं टॉयलेट की ओर चला गया। टॉयलेट से लौटकर रूमाल से हाथ पोंछते हुए अपनी सीट पर बैठ गया। मेरे बैठते ही मेरे सामने बैठा वह आदमी भी उठा और टॉयलेट की तरफ गया। थोड़ी देर बात वापस आकर वह मेरे सामने अपने उसी स्थान पर बैठ गया, जहाँ पहले बैठा था। अब उसने अँगोछे से अपना सिर इस प्रकार ढँक लिया था कि उसका सिर, कंधा और आधा सीना ढँका हुआ था। मैं कभी उसकी ओर देखता तो कभी बाहर झाँकने लगता। हालाँकि अधिकांश यात्री ऊँघ रहे थे, लेकिन वह न जाने क्यों परेशान-सा बैठा हुआ था। उसे देखकर लगता था कि वह कई रातों से सोया भी नहीं होगा और शायद कई दिन से नहाया भी नहीं क्योंकि उसकी कमीज़ पर पसीने के बड़े-बड़े सफेद चकत्ते पड़े थे। पाँव में प्लास्टिक की चप्पलें थीं और पैर धूल से सने थे। 

मैं बैठा-बैठा उसका मुआयना करता रहा। तभी मैंने अपने रूमाल को तह किया और पैंट की जेब में रखने के लिए ज़रा सा उचका। रूमाल रखने से पहले ही मैं एकदम घबरा गया। मेरा मन बैठने लगा क्योंकि रूमाल के साथ मैंने अपनी पैंट की जेब में दस हजार रुपये की गड्डी भी रखी थी, जो अब नहीं थी। मैंने दोनों जेबें देखीं, गड्डी नहीं थी। मैं लपकर टॉयलेट की तरफ गया, इधर-उधर झाँका, पर कुछ फायदा नहीं हुआ। घबराया हुआ लौटा और श्रीमती जी को जगाकर कान में कहा, “लगता है जेब कट गयी, गड्डी नहीं है।“ “क्या?” वह चौंककर उठीं और घबराई हुई-सी कहने लगीं, “फिर से देखो, तुम्हें ठीक से याद तो है न पैंट की जेब में रखी थी।“ मैं बार-बार अपनी पैंट की जेबें टटोलता और श्रीमती जी भी अब तक अपना पर्स टटोलकर निश्चित कर चुकी थीं कि गड्डी उनके पास भी नहीं है। हम दोनों घबरा गए और रेलवे को कोसने लगे क्योंकि रेलयात्रा में अक्सर जेब कटने की घटनाएँ प्रायः रोज़ ही सुनने में आती हैं। इस बार हम भुक्तभोगी थे। 

हमारी घबराहट और हड़बड़ी से ऊँघ रहे यात्री जग गए। एक महाशय बोले, “क्या हुआ भाई साहब?” “कुछ नहीं मैंने खीझते हुए कहा।“ तभी दूसरा बोला, “अभी तो सब ठीक था, अचानक क्या हो गया?” इतने में श्रीमती जी बोल पड़ीं, “अरे इनकी जेब कट गयी। पूरे दस हजार निकल गये।“ आसपास बैठे सभी यात्रियों ने अपनी-अपनी जेबें टटोलीं और मेरी तरफ देखने लगे। पहले वाले महाशय ने सहानुभूति प्रकट की, “आपने पैसे रखे कहाँ थे?” “यहाँ आगे वाली जेब में“, मैंने पैंट की अगली जेब की ओर इशारा करते हुए कहा। उन्होंने तुरन्त सूक्ष्म दृष्टि डालते हुए कहा, “कटी हुई तो नहीं लगती, जेब कटी नहीं होगी। कहीं गिर गये होंगे।“ “दस हजार रुपये की पूरी सील्ड गड्डी गिर जाएगी और मुझे पता नहीं चलेगा? अजीब बात कर रहे हैं आप”, मैंने झुँझलाते हुए कहा। लेकिन तुरन्त ही समझ में आ गया और मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डालकर सोचा, ‘हाँ हो सकता है, मैं टॉयलेट गया था। हाथ पोंछने के लिए रुमाल निकाला था, हो सकता है तभी गिर गयी हो। पर.....।‘ वह महाशय बोले, “ठीक से याद कीजिए।“ मैंने टायलेट वाली बात बता दी। 

इतने में वह आदमी कुछ हिला-डुला और उसके कंधे से अँगोछा हट गया। अरे वह देखो, “उसकी जेब में...” श्रीमती जी चीखीं। सभी ने उसकी जेब की तरफ देखा, “अरे! यह रही गड्डी” पहले वाले महाशय बोले। वह आदमी घबरा गया, “क्या हुआ भाई?” उन महाशय ने उसका गिरहबान पकड़ लिया, “साले चोर, बड़ा शरीफ बनता है।“ “पर हुआ क्या वह एकदम डर गया?” इतने में श्रीमती जी बोल पड़ीं, “तुम्हारी जेब में ये पैसे कहाँ से आये?” 

श्रीमती जी की बात सुनकर वह थोड़ा सख्ती से बोला, “आपसे मतलब, आप होती कौन हैं यह पूछने वाली?” तभी पास बैठे एक अन्य यात्री महोदय बोले, “ए...ज़रा होश में...” मेरी ओर इशारा करते हुए बोले, “भाई साहब के पैसे रेल में गिर गये हैं और हमें लगता है तुमने ही उठाए हैं।“ “अरे! इनके पैसों से मुझे क्या? ये तो मैं अपने एक दोस्त से माँगकर लाया हूँ।“ उसने गड्डी निकालकर अपनी पैंट की जेब में डाल ली। “अच्छा तो तुम्हारे दोस्त ने भी बिल्कुल नये नोटों की गड्डी दी है। मेरे बाद तुम्हीं तो टायलेट गये थे” इस बार मैं भी भड़क उठा। “देखिए मिस्टर ज्यादा बकवास न करें, ये पैसे मेरे हैं। आपके गिर गये तो क्या आप दूसरों को लूट कर अपना नुकसान पूरा करेंगे?” 

वह गरम पड़ गया। इतने में श्रीमती जी चीख उठीं, “एक तो चोरी करते हो और आँखें दिखाते हो। मैं अभी गाड़ी की चैन खींचती हूँ और जीआरपी को बुलवाकर तुम्हारी करतूत बताती हूँ।“ यह सुनकर आसपास के कई यात्री बोले, “हाँ बहन जी! बिल्कुल, अभी इसका भूत उतर जाएगा। सभी ने उसे कसकर पकड़ लिया। श्रीमती जी ने चैन खींच दी। गाड़ी रुक गयी और देखते-ही-देखते गार्ड, टी0टी0, जीआरपी सभी हमारे डिब्बे में आ गए। “क्या बात है, यहाँ चैन किसने खींची?” 

श्रीमती जी ने वीरांगना की तरह उत्तर दिया, “मैंने।“ “क्या बात है मैडम?” गार्ड ने पूछा। इस बार श्रीमती जी से पहले अन्य लोग बोल पड़े, “गार्ड साहब हमने चोर पकड़ा है।“ जीआरपी का जवान बोला, “चोर! क्या हो गया? बात क्या है?” मैंने पूरी घटना बताई। अब तक लोगों के हाथों में फँसा हुआ वह आदमी रोने लगा था। वह बार-बार कहे जा रहा था, “अरे ये पैसे मैंने अपने दोस्त से लाया हूँ। वह शाहजहाँपुर में रहता है।“ जीआरपी के जवान ने उसका कालर पीछे से पकड़ लिया, “ये पैसे तेरे दोस्त ने दिए हैं। चल फोन नम्बर बता, अभी पूछता हूँ तेरे दोस्त से।“ “साब नम्बर हमें नहीं पता, लेकिन हम सच कह रहे हैं। 

हमारी अम्मा लखनऊ में बहुत बीमार हैं, हम उनके इलाज की खातिर ये रुपया अपने दोस्त से माँग कर लाए हैं शाहजहाँपुर से।“ उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा। “अच्छा, कहाँ भर्ती हैं तुम्हारी अम्मा?” टी0 टी0 ने व्यंग्य भरे शब्दों में पूछा। “जी...वह...वह..एस...पी....संजय....” घबराहट के कारण उसके मुँह से शब्द नहीं फूट रहे थे। इतने में जीआरपी के जवान ने एक झापड़ उसके गाल पर मारा, “साले झूठ बोलता है। अरे तेरा इलाज तो मैं करूँगा।“ वह बुरी तरह रोने लगा उसकी भाषा में अवधी झलकने लगी, “साब...हमरा विस्वास करो...हम सच कहि रहे हैं....हमरी अम्मा मर जाएगी...हम सच किह रहे हैं...।“ “हाँ-हाँ मुझे मालूम है...तुझ जैसों की अम्मा रोज़ मरती हैं...रोज़ जिन्दा होती हैं। साले, चल उतर गाड़ी से।“ इतने में जीआरपी के अन्य जवानों ने उसके दो-तीन झापड़ और जड़ दिए। वह बुरी तरह गिड़गिड़ाने लगा, “साब हमार रुपइया ले लो, पर हमको जाने दो...हम घर न पहुँचब त हमार मइया मर जाई....साब...रहम करो....।“ 

उसे जेब से गड्डी निकाल कर टी0टी0 को दे दी। टी0टी0 ने वह गड्डी मुझे पकड़ा दी जिसे श्रीमती जी ने मेरे हाथ से छीनकर तुरन्त अपने पर्स में रख ली। वे सारे उसे लेकर डिब्बे से नीचे उतर गये। डिब्बे में बैठे सभी यात्री श्रीमती जी की वीरता और मेरी किस्मत की प्रशंसा कर रहे थे, “भई वाह, क्या किस्मत है भाई साहब आपकी! वरना क्या खोये हुए पैसे मिलते हैं कभी?” दूसरे ने कहा, “अरे साहब! दाद तो भाभी जी की हिम्मत की देनी चाहिए।“ फिर तो कभी ठहाके और कभी तालियाँ डिब्बे में गूँजने लगीं जिसमें गाड़ी की सीटी और छुक-छुक कर चलने की ध्वनि भी शामिल हो चुकी थी। मुझे भी काफी अच्छा लग रहा था, लेकिन न जाने क्यों कभी-कभी यह भी लगता था कि ‘कहीं उस आदमी की बातें सच तो नहीं थीं?‘ 

फिर अगले ही पल यह ख्याल भी आया कि ‘ये चोर-जेबकतरे बड़े मक्कार होते हैं, जब फँसते हैं तो अपना चेहरा और बोली ऐसी बना लेते हैं कि वे बहुत दीन-दुखी और सीधे हों।‘ फिर तो पूरे डिब्बे में चोरी, जहरखुरानी आदि की बातें होने लगीं। ट्रेन फिर धीरे-धीरे रुकने लगी, तभी एक महाशय बोले, “हरदोई आ रहा है, अरे भाई साहब! (गेट के पास वाली सीट पर बैठे व्यक्ति से बोले) गेट बन्द कर लीजिए। अब किसी को नहीं चढ़ने देंगे।“ उसने झट से आज्ञा का पालन किया। वे महाशय इस बार हमसे बोले, “पता नहीं कब कौन चढ़ जाए? वैसे भी अभी-अभी हमने देख ही लिया।“ मैंने भी उनकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलादी। गाड़ी दो मिनट रुक कर फिर चल दी। “अब यह सीधे लखनऊ ही रुकेगी”, उन महाशय ने कहा। मैंने भी एक पत्रिका में अपनी नज़रें गड़ा दीं। श्रीमती जी भी गोदी में सो रही बिटिया का सिर सहलाते हुए ऊँघने लगीं थीं। 

ट्रेन लखनऊ के तीन नम्बर प्लेटफार्म पर रुकी। साथ बैठे सभी लोग लखनऊ उतरने वाले थे। सो एक-एक कर उठने लगे। लेकिन चोरी वाली घटना से हम जैसे सेलिब्रिटी बन चुके थे। सभी खुद उतरने के स्थान पर हमें (विशेष रूप से श्रीमती जी को) उतरने के लिए जगह दे रहे थे। किसी ने हमारी अटैची पकड़ी, किसी ने बेटी को तो किसी ने पानी की बोतल और बैग।

लगभग दस मिनट में हम स्टेशन से बाहर आ गए। बाहर श्रीमती जी के बड़े जीजाजी अपनी कार लिए खड़े थे, साथ में हमारे छोटे साले साहब जिनके विवाह में शामिल होने हम आए थे, भी उपस्थित थे। उन्होंने तुरन्त श्रीमती जी की गोद से बिटिया को ले लिया और मुझसे हाथ मिलाकर, “कैसे हैं डाक्टर साहब” कहते हुए कार की ओर बढ़ गए। मुझे उम्मीद थी कि मेरी अटैची भी कोई पकड़ेगा पर....। मैंने कार की डिग्गी में अटैची डाली और कार में बैठ गया। 

रास्ते में ट्रेन में घटी सारी घटना श्रीमती जी ने सुना डाली। मैं तो ऊँघता रहा। लगभग आधे-पौन घंटे में हम इन्दिरा नगर पहुँच गए। घर पर सभी ने हमारा (श्रीमती जी का कहूँ तो ज्यादा अच्छा) स्वागत किया। सब हमें घेर कर बैठ गये और श्रीमती ने फिर वही ‘ट्रेन पुराण’ सुनाना शुरू कर दिया। इसी बीच वे मुझसे बोलीं, “आप चाहो तो अटैची ऊपर वाले कमरे में ले जाओ और फ्रेश हो लो।“ मतलब साफ था कि “फूटो यहाँ से।“ मैंने अटैची उठाई लेकिन इस बार छोटे साले साहब ने लपक ली, “लाइए मैं ले चलता हूँ।“

ऊपर का कमरा खाली था। मैंने नहाने की इच्छा व्यक्त की तो उसने कहा, “हाँ, हाँ क्यों नहीं अटैच बाथरूम है। आप फटाफट नहा लीजिए। फिर नाश्ते के लिए नीचे आ जाइएगा।“ कहकर वह नीचे चला गया। मैंने कपड़े आदि निकालने के लिए अटैची खोली कपड़ों के ऊपर ढँका तौलिया उठाया। अपने अधोवस्त्र निकाले और एक दम चौंक पड़ा, “हैं...यह क्या! गड्डी तो यह रखी है।“ मैं एकदम स्तब्ध रह गया। एकाएक मुझे सब याद आने लगा, ‘अरे हाँ, घर से चलते समय मैंने ही तो गड्डी जेब से निकालकर अटैची में रखी थी और रूमाल को गड्डी समझता रहा।‘ मेरे लिए अब सबकुछ स्पष्ट हो चुका था। उस आदमी की बातें बार-बार मेरे कानों में गूँजने लगीं। मुझे बहुत ग्लानि हो रही थी। इस समय मैं उस आदमी से भी ज्यादा मजबूर था। वह सच कह रहा था और सब उसे झूठ समझ रहे थे। मुझे रह-रहकर उसकी बातें याद आ रही थीं।


तारीख: 09.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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