भूरे रंग का साथी

जब पहली बार मुझे मेरे पति अविनाश ने अपने घोड़े, रौनत, के बारे में बताया उसी वक़्त से मुझे लगा कि उन दोनों के बीच कोई मामूली पालतू जानवर और मालिक का रिश्ता नहीं। उनके बीच कुछ अलग एहसास है। लेकिन मुझे आशा नहीं थी कि इस घोड़े रौनत की वजह से मुझे खुद को एक इतना सुहाना तोहफा मिल जाएगा।


मारवाड़ राज्य (जो की अभी राजस्थान में है) में अविनाश के दादा एक राजा के यहाँ चालक का काम करते थे। राजा के सभी घोड़ो की देखभाल करना और उन्हें राजा के लिए तैयार करना उनका पेशा था। यही काम अविनाश के पिता ने लिया और फिर वहीं बरमार शहर में आज़ादी के बाद टूरिज्म का अपना व्यापार करने लगे। इसके लिए उन्होंने अलग-अलग घोड़ों का संकरण (corss breeding) करनी शुरू की। इन्ही का नतीज़ा था ये घोड़ा, रौनत। 


अपने पिता के साथ उसी व्यापार को संभालने वाले अविनाश को भी बचपन में ही जानवरों से लगाव हो गया था। लेकिन जब अविनाश नौ साल के हुए तो उनके पिता ने उन्हें रौनत दिया जिसे वो आज भी अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा तोहफा मानते हैं। आज भी जब उस दिन को याद करते हैं तो इस तरह बताते हैं मानो इंद्र अपनी किसी अप्सरा की खूबसूरती बयान कर रहा हो। 


“बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन इस दुनियाँ के सबसे स्वाभिमानी जानवरों में से होते हैं घोड़े, अपने ऊपर हुए किसी भी अत्याचार को आसानी से बर्दाशत नहीं करते। कई दिन भूखे रह जायेंगे लेकिन अपने मालिक के घर के अलावा किसी और नाद में नहीं खायेंगे। रौनत भी ऐसा ही था। वो उस वक़्त हमारे शहर के सबसे खुबसूरत घोड़ों में से एक था, उसका भूरा रंग, मजबूत कन्धा, चमकती आँखें, हिरन से भी तेज़ उनकी रफ़्तार किसी को भी उसके लिए लालच आ आए। वो राजा महाराजा के घरों का घोड़ा था, हम जैसों का नहीं।”


ऐसा कहते हुए कभी-कभी उनकी आँखों में पानी भी देखा है मैंने। ऐसा ही पानी उस दिन भी आया था जब उनके पिता ने एक दिन रौनत को किसी बिचौलिए को बेच दिया था। वो बताते हैं कि तब वो अपने कमरे में बैठ के थोड़े देर के लिए रोए भी थे। शायद इसलिए कि मेरी ही तरह इनका भी कोई गहरा दोस्त नहीं रहा सिवाय रौनत के।


मेरी अविनाश से शादी से पहले से भी मैं इनके इस दर्द को समझती थी। मेरे पापा भी BSF में थे। हर चार या पांच साल के बाद मुझे एक शहर छोड़ कर दुसरे शहर जाना पड़ता था। ऐसे में बचपन से लेकर जवानी तक बहुत से दोस्त बने भी और बिछड़े भी। मैं हमेशा चाहती थी कि कहीं हम रुक जाएँ हमेशा के लिए ताकि मुझे और बैग न पैक करना पड़े। साथ ही मेरे कुछ स्थाई दोस्त बन सकें। मैंने कभी ये बात अपने मम्मी-पापा को नहीं बताई। मैं उन्हें दुःख नहीं पहुँचाना चाहती थी। लेकिन फिर भी मन तो है जो आस बना ही लेता है। मन में आशा ये भी थी कि कहीं भगवान हमारे पदचिन्ह का हिसाब रखते हों। हो सकता है ब्रम्ह देव ने हमारे ऊपर कोई monitoring system लगा रखा हो जिससे हम कहीं भी जाएँ उसका track उन्हें मिल जाएगा। और इसी तरह कभी मैं अपने बिछड़े हुए दोस्तों से मिल सकुंगी, फिर से मुझे मेरा बचपन मिल सकेगा।
साल 2003 की एक शाम होगी जब अविनाश और मैं घर में यूंही बैठे थे और टीवी पे कोई कार्यक्रम देख रहे थे तभी उन्होंने कहा, “क्या मैंने तुम्हे बताया रौनत Reining में champion था?”


“किसमें?” मैंने आश्चर्य से पूछा।
“ये एक अंग्रेजी खेल होता है जिसमे एक घोड़े को कुछ सकरें रास्तों से, गहरे खड्डों से और रास्ते में आए अवरोधों (obstacles) को कूद-फान कर पार करना होता है। उसके बाद उसे एक hoop से कूद कर दौड़ को ख़त्म करना होता है। ये world level पर गेम भी होता है। इसमें एक घोड़ा कितना नियंत्रण में रह सकता है इसकी पहचान होती है। इसमें रौनत champion था।” कहकर वो मुस्कुराने लगे।


मैं थोड़ी देर सोच में रही, फिर पूछा, “अगर वो आपको इतना प्यारा था तो आपके पिता ने उसे बेचा क्यों?”
“मुझे तो मालूम भी नहीं था वो ऐसा करने की सोच रहे हैं।” उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की। “जब मैं सत्रह साल का हुआ और कॉलेज चला गया तब शायद उन्हें लगा होगा कि अब मुझे घुड़सवारी करने की ज़रूरत नहीं। मैं किसी बड़ी कंपनी में white-collar job करूँगा। इसलिए शायद उसे बड़े मुनाफे पे बेचना ही उन्होंने सही समझा।
“मैं कभी कभार सोचता हूँ, क्या उस घोड़े ने भी मुझे उतना ही miss किया होगा जितना मैंने उसे? मैंने कभी कोशिश नहीं की उसे ढूंढने की। कभी हिम्मत ही नहीं हुई, ये सोचकर की कहीं उसे कुछ..........” बोलते बोलते वो रुक गए। मैं समझ गई कि वो ये सोचना भी नहीं चाहते कि उसे कुछ बुरा हुआ हो।


उसके बाद बहुत दिन बीत गए उन्होंने मुझसे अपने घोड़े का ज़िक्र भी नहीं किया। अपने पति को इस हाल में देख के बहुत बुरा लग रहा था। वादा जो किया था कि उनकी ख़ुशी के लिए सब कुछ करुँगी।
दिल में बार बार आया कि मुझे रौनत को ढूँढना चाहिए, अविनाश के लिए। लेकिन अगले ही पल ये लगा ‘क्या बकवास है’। मुझे न किसी जानवर के बारे में कुछ पता है न ही किसी घोड़े के बारे में। खरीद बेच एक अलग आफत है। न जाने कितने तरह के नियम होंगे जिन्हें follow करना पड़ेगा। वो सब तो अविनाश ही जानते थे। 


लेकिन मैंने जितना ज़ोर लगाया इस सोच को दूर भगाने के लिए ये ख्याल उतना ही मेरे दिमाग में आता गया। मैंने इस बात की चर्चा किसी से नहीं की बस एक दिन सुबह भगवान् से कहा, “देखो प्रभु ये बात मेरे दिमाग में तुमने डाली है इसका हल भी तुम्ही को देना है। अगर इस बात का कोई भी मुझे संकेत आप देते हैं तो ही मैं आगे बढुंगी वरना ये ख्याल यहीं छोड़ दूंगी।”
ऐसा कहकर मैंने सब कुछ भगवान् पर छोड़ दिया। इसके तीन ही हफ्ते बाद हमारे घर पर अविनाश के एक पुराने रिश्तेदार आए। उनके साथ एक अंकल भी आए थे जिनसे अविनाश के पिता की लम्बी जान पहचान थी। हंसी मज़ाक चल ही रहा था कि उन्होंने बताया कि अविनाश के पिता से उन्होंने बहुत से जानवरों को zoo तक पहुँचाया है कभी कभार एक या दो बिचौलियों की मदद भी ली। इतना सुनना था कि मेरी भौहें चढ़ गए। मुझे समझ में आया यही है संकेत। दिल से आवाज़ निकली, “मैंने अपना काम कर दिया, बस अब आगे तुम्हे ढूँढना है रौनत को, अपने पति के लिए।” जब अविनाश अन्दर किसी काम से गए तो मैंने उनसे पूछा, “अंकल क्या आपको याद होगा आपने किसी रौनत नाम के घोड़े को अविनाश के पिता से ख़रीदा था?”


“वो, अरे उसकी तो सबसे ज्यादा कीमत दी थी। पुरे पैंतीस हज़ार पे बात फाइनल हुई थी।”
मानो मैं अपने सोफे पर से उछल ही गई और उनके पास आके बैठ के कहा, “आपको मालूम है उस घोड़े का क्या हुआ?”
“हाँ मैंने भी उसे एक zoo को बेच दिया अच्छी कीमत के साथ।”
“वो घोड़ा अभी कहाँ होगा?” मैंने पूछा। “मुझे उसे ढूँढना है।”
“नहीं, वो तो मुमकिन नहीं। मैंने उस घोड़े को सालों पहले बेचा था अब तक तो शायद मर भी गया होगा।” 


“लेकिन.......लकिन अगर ऐसा नहीं हुआ हो तो क्या आप मेरी उसे ढूंढने में मदद करेंगे?” उनके चेहरे पर अजीब सा संकोच नज़र आ रहा था, शायद वो मेरी इस घोड़े के प्रति जिज्ञासा को नहीं समझ पा रहे थे। मैंने उन्हें सारा किस्सा कह सुनाया। उन्होंने मुझे थोड़ी देर के लिए घूरा। फिर उन्होंने कहा, “ठीक है बेटी, लेकिन अगर हमे पता चल जाए कि वो घोड़ा जिंदा नहीं है। हम ये बात यहीं ख़तम कर देंगे। इसपर अपना और वक़्त ज़ाया नहीं करेंगे।” 


मैंने उनकी इस बात को मान लिया और बदले में ये शर्त रखी कि अविनाश को इस बारे में कुछ भी पता नहीं चलने पाए। 
उस दिन से लेकर अगले एक साल तक, मेरी और Mr. मेहरा की हर शुक्रवार को फ़ोन पे बात होती इसी आशा में कि उनकी खोज से उन्हें कुछ हाँथ लगा हो। और हर हफ्ते उनका यही जवाब होता, “नहीं बेटा कुछ नहीं मालूम चला।”
एक शुक्रवार को मैंने Mr. मेहरा को एक और तरकीब सुझाते हुए कहा, “क्या हमे कम से कम रौनत का एक बच्चा भी मिल सकता है?”


“मुझे नहीं लगता” उन्होंने हँसते हुए कहा, “रौनत का बधियाकरण हो चूका था। वो कोई बच्चा नहीं पैदा कर सकता था।”
कुछ दिन ऐसे ही बीते। लगातार मेरी आसक्ति को देखते हुए Mr. मेहरा ने अब अपनी मेहनत दुगनी कर दी थी। एक दिन अचानक सोमवार को ही सुबह-सुबह उन्होंने मुझे फ़ोन किया और चिल्लाए, “वो मिल गया, वो मिल गया। रौनत मिल गया।”
“कहाँ?” मैंने हड़बड़ाते हुए पूछा।


“यहीं पर, बड़ोदरा के एक फार्म पे।” फार्म वालों ने कुछ काम करवाने के लिए रौनत को ख़रीदा था लेकिन रौनत कुछ भी नहीं करता। वो बस इधर से उधर दौड़ता है या कभी चुपचाप अपने अस्तबल में बैठता है। किसी के काबू में नहीं आता। उन्हें लगता है ये घोड़ा पागल है, शायद खतरनाक भी इसलिए इसे खरीदने में तुम्हे कोई तकलीफ नहीं होगी।” 
Mr. मेहरा बिलकुल सही थे। मैंने उस फार्म पे फ़ोन करके पूछा। फार्म तो सिर्फ आठ हज़ार रुपए में रौनत को देने को तैयार था। मैंने ज़रूरी कागज़ात तैयार किए और तैयारी करनी शुरू की रौनत को यहाँ लाने की। मैं अब सोच रही थी कि मेरे ऐसा तोहफा देने के बाद अविनाश का चेहरा कैसा होगा?


मैंने किसी तरह ये बात शुक्रवार तक छुपाई, शनिवार की सुबह-सुबह मैंने उनसे कहा, “आज मैंने एक पिकनिक का प्लान बनाया है। आप चलेंगे?”
अविनाश ने औंधते हुए कहा, “लेकिन जान मैं आज थका था, सोना चाह रहा था।”
“कोई बात नहीं बाबा, कल सो लेना, आइए मेरे पास आपके लिए एक सरप्राइज है। मुझे पूरा यकीन है आपको पसंद भी आएगा।”


वो जीप में आधे मन से बैठ गए, मैंने चलाना शुरू किया। हमारी गाड़ी जैसे जैसे आगे बढ़ रही थी वैसे वैसे मेरे दिल और ज़ोरों से धड़क रहा था। लगा मानो फट जाएगा। डर के मारे मैं सिर्फ इधर उधर की बातें कर रही थी।
“हम कहाँ जा रहे हैं?” पुरे तीस मिनट बाद उन्होंने मुझसे पूछा।
“बस कुछ ही दूर,” मैंने कहा।
अविनाश ने लम्बी जम्हाई ली। “मुझे लगा नहीं था शादी के बाद आदमी की लाइफ में इतना सस्पेंस भी आ जाता है।” कहकर वो अपना जोक मारने लगे। मैंने बदले में कुछ नहीं कहा, सिर्फ सही वक़्त का इंतज़ार कर रही थी। 
लेकिन जब तक मैं main road से कच्ची सड़क में दाखिल हुई तब तक अविनाश मुझसे इतना नाराज़ हो गए थे कि मेरी तरफ देख भी नहीं रहे थे। जब मैंने फार्म के तरफ जाने के लिए गाड़ी और अन्दर बढाई तो उनके सब्र का बाँध टूट गया, वो चिल्लाए, “अब और कहाँ अन्दर जाना है, खाई से गिरा दोगी क्या गाड़ी?”
मैंने जीप रोक दी और कहा, “हम पहुँच गए।”
“यहाँ? यहाँ कहाँ? सीमा आज क्या दिमाग ख़राब हो गया है तुम्हारा?
“चिल्लाए मत।” मैंने कहा। “बस सिटी बजाइए?”
“क्या?” वो फिर चिल्लाए।
“जी हाँ सिटी, वैसे ही जैसे अपने रौनत के लिए बजाते थे। बस बजाइए आपको समझ में आ जाएगा।”
वो मेरी ओर देखने लगे, मानो मेरी बातों में मतलब ढूंढने की कोशिश कर रहे हों। जब समझ में आया तो चौंक कर बोले, “रौनत? क्या वाकई? वाकई वो यहाँ पर है?”
मैं कुछ न बोली बस मुस्कुराती रही। उन्होंने सिटी बजाई। पर कुछ नहीं हुआ। दोबारा बजाई फिर भी कुछ नहीं हुआ। अब वो जीप से बाहर आ चुके थे।
मैंने मन ही मन प्रार्थना शुरू की, “नहीं-नहीं प्रभु ऐसा मत होने देना, इतनी मेहनत की है अब यहाँ पर आके गड़बड़ मत करना।”
मैंने एक बार उनसे कहा, “एक आखिरी बार फिर से कोशिश कीजिए।” उन्होंने फिर से सिटी बजाई और हमने दूर कोई आवाज़ सुनी। हमारे सिर उस तरफ अपने आप मुड़ गए। 
उन्होंने फिर से एक जोर की सिटी बजाई। अचानक हमे सामने के पेड़ और पौधों के बीच से दौड़ता हुआ नज़र आया वैसा ही भूरे रंग का खुबसूरत घोड़ा। दौड़ते हुए उसके बाल हवा में लहरा रहे थे और वो तेज़ी से सिटी की आवाज़ की तरफ भागा चला आ रहा था। 


“रौनत” अविनाश के मुंह से चीख निकल गई। उन्होंने भी दौड़ना शुरू किया अपने सबसे पुराने और इकलौते दोस्त की तरफ। मैंने अपने पति को और उस घोड़े को उसी तरह मिलते हुए देखा जैसे सत्तर या अस्सी के दशक में फिल्मों के हीरो अपने पसंदीदा घोड़े से slow-motion में मिला करते थे। जाते ही अविनाश ने छलांग लगा दी अपने दोस्त की पीठ पर, उसे गले लगाने की मुद्रा में पकड़ लिया और उसके गर्दन को सहलाने लगे।
उसके बाद ही फार्म में रहने वाले एक पिता और बेटे की जोड़ी वहां पहुँची और उन्होंने वहां की ज़बान में हमसे कहा, “ओ मिस्टर, जे क्या कर रहे हो आप? जे घोड़ा तो पागल से। कछु न करण लागे है माने?” (ये घोड़ा तो पागल है, इससे कुछ नहीं हो पाएगा हमे तो लगता है।)


अविनाश ने मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं ये पागल नहीं है, यो तो रौनत है।”
कहने के बाद अविनाश ने एक बार जोर से कहा, “हिएयाह........” हम सबकी आँखे फटी की फटी रह गई जब देखा कि अविनाश के एक छोटे से इशारे पे रौनत भी अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करने के लिए जोर जोर से अपनी कमर को हिलाने लगा और फिर उछल-कूद करने लगा। उसने फिर अपना सर हवा में लहराया और अविनाश को बिठा के पुरे मैदान का एक चक्कर लगा दिया। उस वक़्त तक किसी के मुंह से कोई आवाज़ नहीं निकली। जैसे ही रौनत ने अपनी सवारी पूरी की, अविनाश उसकी पीठ से उतर गए। मेरे पास आते ही बोले, “मैं रौनत को घर ले जाना चाहता हूँ।”
मैंने अपनी आखों के आंसू पोछते हुए कहा, “हाँ मैं जानती हूँ। सारे इंतज़ाम हो चुके हैं। हम दुबारा आकर इसे ले जा सकते हैं।” 
“नहीं मेरा रौनत आज ही मेरे साथ जाएगा।”
मैंने अपने सास-ससुर को फ़ोन किया, उन्होंने शाम तक एक गाड़ी मंगाई जिसमे जानवरों को ले जाया जा सकता है। हमने पैसे दिए और रौनत को घर ले आए। 
उस दिन रात में अविनाश रौनत के लिए हमारे गार्डन में ही अस्तबल बनाने में जुट गए। रात भर में उन्होंने उसे बना के खड़ा भी कर दिया। बेचारे दोस्तों को अच्छा वक़्त चाहिए आपस में बात करने का ऐसा सोचकर मैंने उन्हें अकेला छोड़ दिया। मैं रात को जब अपनी बेडरूम की खिड़की से देख रही थी तो बस ये सोच के मुस्कुरा रही थी कि हमारे पास आज अपने पोते पोतियों को सुनाने के लिए कितनी खुबसूरत कहानी है। 
“आपका बहुत बहुत धनयवाद प्रभु।” मैंने मन ही मन कहा। “आपने मेरे न सही रौनत के पदचिन्ह का हिसाब रखा जिसकी वजह से हम उसे ढूंढ पाए। मेरे पति के पास आज सबसे बड़ा दोस्त है, जो की नहीं मिल पता अगर मैंने आपके संकेत पे अमल नहीं किया होता तो। काश हम सभी के पास होता ऐसा ही भूरे रंग का साथी।

-    सीमा राठौर

 


तारीख: 02.08.2019                                    प्रिंस तिवारी









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