आग जलाके रखना

 

प्रचण्ड ओज का स्वामी
छुप रहा कहीं रवि
गूढ़ गुप्त निष्ठुर सा है
रैन का अधिपति
मंयक की आभा जमी
पिघल भी जाए तो है क्या
वीर रक्त का हृद्य में
प्रवाह बनाके रखना
ये आग जलाके रखना ।

किसने किया वनिष्ट ये
जो उजड़ा पहाड़ है
ठूँठ भी विधवस्त से
शीत भी प्रगाड़ है
नहीं यूंही प्रख्यात यह
विक्षत अनेक पात हैं
बोध रख यहीं कहीं दवा पड़ा
बसंत का निवास है
एक एक पत्र तुझे स्वयं
वेदी उठा के रखना
ये आग जलाके रखना ।

इस अन्धेरी रैन का
तोड़ना तुझे अभी
उठ रहा समक्ष जो
मोड़ना तूफान भी
खींच ले तूँ कंठ में
तूफान को करले गरम
कुछ फूंक दे इस आग पर
कुछ फूंक के पिघले बर्फ़
पिघल ना जाए हृद्य तेरा
उसे पाषाण बना के रखना
ये आग जलाके रखना ।

काल के इस नगर में
रचा गया स्वांग है
इक नया आकाश दे
इस धरा की मांग है
तूँ रहे, रहे ना तूँ
रहे ना दुष्ट का भ्रम
सर्वोत्म वीर की गती, वहीं
स्मार्क बना के रखना
ये आग जलाके रखना ।


तारीख: 18.08.2017                                     तरुण कुमार









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है