अतीत की परछाई

सुख की उजली धूप मेरे, मन के आँगन से बिछुड़ गयी 
जाने कब दो बूँदें पलकों, पर बिखरी और निचुड़ गयी
जीवन के वो मोड़,  जिन्हें मैं भूल चूका 
जाने क्यूँ यादों की चादर, उन पर आकर सिकुड़ गयी 

कुछ गीत मधुर जो कभी अधर पर, आते-आते लौट गये  
और जाम कई जो छलक गए, और प्यास बढाकर कर लौट गये  
मुस्कान ओढ़कर कुछ चेहरे, सम्मोहित सा कर 
मन को भरमाकर, देकर गहरी चोट गये

लाचार अधूरे सपने आँसू, बन छलके और टूट गये  
जीवन की आपाधापी में कुछ, सुख के पल जो छूट गये
पुरवाई के झोंके जीवन, के उपवन  से रूठ गये
कुछ मीत मिले बन के अपने, पर मन के सपने लूट गये

फिर अतीत में लौट अँधेरों, से नाता क्यूँ जोड़ रहा 
परछाई के पीछे अंधा सा होकर क्यूँ दौड़ रहा
भूल गया क्यूँ लक्ष्य पार्थ सम,   कुरुक्षेत्र में
रथ को जाने फिर,  पीछे क्यूँ मोड़ रहा 

निष्काम कर्म कर्त्तव्य-बोध, संकल्प अटल सब क्यों भूलूँ   
बन दिशाहीन फिर  शंकाओं के, झूलों में  मैं क्यों  झूलूँ
फिर अतीत की भँवरों में ही, अब मैं क्यूं गोते खाऊँ 
इच्छा-शक्ति को नाव बनाकर, क्यूँ  ना  मैं तट को छू लूँ


तारीख: 27.08.2017                                    सुधीर कुमार शर्मा









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