धूमिल तिमिर की एक छाया- 1

A shadow in the night. 

A highly ambitious man is all set to explore the secrets of life and this world. Of sun, moon and the universe! He sets out on his journey as the “Tejaswi Ek Yatri”, But had he understood his own secrets first?

On his way in the woods, he meets “Nishachar Ek Gyata”, a scholar monk who had seen this universe and the nuances of the human life for years; who tells him it’s not a worry to NOT have a shadow of yourself in the darkness of the night, and have a shadow only during the bright sunlight. Tejaswi learns that his dominance could be stamped stronger than a shadow, as a reason of his existence, only by his actions for introspecting and knowing himself better. The law of nature that he understood was - “Once we are learned and capable enough to change ourselves for the good, the world does so!” 

Here is how it goes:

तेजस्वी एक राही :
“ललक पड़ी हालात बदल दूं...हर दूजे के जज़्बात बदल दूं !
सुर्ख बना दूं नील से अंबर,
संतापों के महफिलात बदल दूं !!”

निशाचर एक ज्ञाता:
व्याकुल तू आकाश के लिए,
लाल ना उसको होना...!
अभिज्ञान बराबर खुद की कर,
क्यूँ ना झाँके कोना कोना…?
रहा रहनुमा नील निरंतर, 
किअंबर सुर्ख नहीं होता है !
हाँ वो अंबर सुर्ख नही हो सकता,
वो तो नील की पहचान है !!
तेरी क्या पहचान है बंदे?
तेरे भी कुछ प्रमाण हैं?

तेजस्वी एक राही :
मेधावी मैं अतिचतुर नामवर !
रहूँगा सारा जगत जानकर I
चेतनाहीन जो ना होता सुरज !
नमता प्रतिद्वंदी मुझे मानकर I

निशाचर एक ज्ञाता:
श्रद्धेय किरण पूर्ण उषा में अधिवेश कर,
सर्वप्रथम स्वंय को पहचान तू !
सूर्यातनमन की कल्पना त्याग दे,
कर आत्मनिरीक्षण में ध्यान तू...!!
पलक झपकते ग्रहण में खोते जहाँ,
वहाँ जिस्मानी संपत्ति का गुमान ना कर !!
भौतिक अवन से उपर उठ जा,
सच्चे विवेक का अपमान ना कर !!

चेतन अस्तित्व का रहस्य बीजलेखन,
ब्रम्हांड में नहीं स्वाभ्यन्तर है...!!
व्यंग्य है एक, संसार तलाशना,
राज़ तो तेरे अंदर है...!!

धूमिल तिमिर की छाया है तू ,
पर धूमिल तिमिर में न दिखती छाया...!!
स्वर्ण रजत हीरक कुछ नहीं प्रज्वलित,
ना तेरा कौशल ना तेरी काया !

मूक वायू भी कुछ कहती तुझसे,
पर सुनना तेरे कर्ण पे है I

तो कर्ण को फिर तराश ले तू ,
सूरज पे अधिकार की आस ना कर I
तेजश्वि तू राही सच्चा !
ग़लत मार्ग बर्दाश्त ना कर...!!
आग जला दे खुद के अंदर,
आसमाँ जलाने का कैसा मंसूबा ?
जब हो प्रकाश तुझ से उदित…
वही तेरा कौशल, तेरी सच्ची काया !!


तेजस्वी एक राही :
अहंकार की क्षमा याचना,
पर जिस जग में हूँ उसको ना जानूँ...?
निशा स्वर्ण भी धुन्ध कर देती है,
फिर रात की क्या योग्यता मानूं ?
दिवस ही आलोक का हितैषी है !
दिवस पर नियंत्रण की ना ठानू ?

निशाचर एक ज्ञाता:
नियंत्रण स्वयं पर होवे बस,
संसार में असीमित लोभ, अनंत आशाएं हैं I
कितनों को हम डोर से बाँधे? करें कितनो पे काबू?
क्या ये मेधा और सामर्थ्य की परिभाषाएं है ?

खुद को जिसने जान लिया,
जग जानने का औचित्य बचा क्या?
धूमिल तिमिर में ना चमकता सोना,
बाह्य स्वर्ण का महत्व बचा क्या?

खुद से परिभाषित कर दे जग को,
जग तेरी क्यूँ परिभाषा दे ?
परिणत होगी दुनिया सारी,
आपबोध के प्रति बस आशा दे !!

पहला पग जब खुद को बदलना हो,
दुनियाँ बदलती ही जाएगी !
धूमिल तिमिर मे भी तेरी छाया,
एक पहचान अंकित कर जाएगी !!!
                      


तारीख: 05.06.2017                                    गौतम कुमार मंडल









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