धुप


सूर्य की संगिनी,
भोर भई रागिनी,
ढलती शाम की गुमसुम उदास खूबसूरती,

जिसका इंतज़ार मैं हर रात करता हूँ
सुबह से शाम जिसका में दीदार करता हूँ
जिसके आते ही चिड़ियाँ चहचहाती है,
जिसके जाते से अजीब ख़ामोशी छा जाती है|

उजाले का वो रूपक है,
दिनचर्या का वो रूप,
खलिश उसकी अँधेरा है,
है जो जीवन की धुप|

ओस में भीगे फूलों को,
वह सुर्ख बनाती है,
बाद-ए-सबा संग बहती जाती है,
पीत वर्ण में धरा रंग देती है,
कलियों को हरा रंग देती है,

जिसकी उमस पा कर पोधे, 
तरुवर विशाल बनते है,
जिसकी उपमा में,
उम्मीद की किरण के मिसाल बनते है,

नागवार सा दिन गुज़ार के,
हसरतों को दिल में दबा के,
आखों में सुन्दर ख्वाब सजाये,
बिस्तर पे नींद को गले लगाये,
हम हिम्मत तोड़ते है,
भले कितनी भी गम-ए-हयात हो मोजूद,
हम अगले दिन की आस-ए-अफरोज़ी नहीं छोड़ते है,

सुबह जब आँख खुलती है,
एक नया दिन,
एक नयी किरण,
तुम्हारा नवल रूप,
और नयी तुम्हारी धुप,
जगत उजयारा करती है,

और मैं निकल पड़ता हूँ,
धुप को गले लगाये,
खुद की गलतियों को,
मैंने किया माफ़ है,

मंजिल नज़र आने लगी है,
धुप ही ने मेरी राह को प्रत्यक्ष किया है,


 


तारीख: 20.03.2018                                    सूरज विजय सक्सेना









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