एक भारी-भरकम बस्ता

ना जाने क्यूँ, हर साल यूँ ही
बढ़ता रहता और फूलता
एक मासूम से बच्चे के 
नाजुक से कंधे पे झूलता
उसके खुद के ही
वजूद पर भारी पड़ता
एक भारी-भरकम बस्ता
लम्बे-चौड़े पाठ्यक्रम के
दानवी पंजे में कसता
दब जाता है जिसके नीचे
एक बचपन मुस्काता-हँसता
कैद किया है हमने जिसको
क्या वह बचपन है इतना सस्ता

ये पर्सेंटेज और 
रैंक की गहमागहमी
मस्तिष्क का विकास है या
इसके नाम पर पलने वाली
एक गलतफहमी
हम अपने कुछ आहत,अधूरे
सपनों का नया आकार
उनमें खोजते,और 
उन पे थोपते हैं
अति महत्वाकांक्षा का
एक दमघोंटू संसार
छीनकर उनका अल्हड़पन और शरारत 
और उछलने-कूदने के
सब मौलिक अधिकार

वे आते हैं बनकर आँगन की
मिट्टी की भीनी सी खुशबू
हम खडी़ करते हैं उनमें
श्रेणियों की एक ऊँची सी दीवार
और लाद देते हैं उन पर
लम्बी-चौडी़ आशाओं के
भारी भरकम से अम्बार
स्पर्धा के नाम पर
हम करते है एक निर्मम अत्याचार

ये बच्चे का है पोषण 
या अनजाने ही एक शोषण
या पुष्ट होता है इससे
अपना स्वयं का  ही 
कोई आहत अहम्
यह शिक्षा है या
उसके साये में पलता
शिक्षकों,अभिभावकों का
सिर्फ एक बहम

इस अंधाधुंध दौड़ में
थोड़ा सा आगे निकलना
या फिर थोड़ा सा पिछड़ना
क्या यही है जिन्दगी की जय-पराजय
क्या यही है बचपन पर
जबरन थोपा जाने वाला
जिन्दगी का का सच्चा परिचय


तारीख: 07.12.2019                                    सुधीर कुमार शर्मा









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