हम कुछ पाना चाहते हैं, फिर कुछ ज्यादा फिर उससे ज्यादा
क्यूँ अंतहीन सुख की मृगतृष्णा, शिथिल मूल्यों की मर्यादा?
क्या समृद्धि ही परम लक्ष्य, और मापदंड है सिर्फ फायदा
लगने लगता है बोझ हमें, क्यूँ गलत सही का फायदा?
अपना ज़मीर पीछे छूटा, क्यूँ अजनबी लाचार सा
क्या इसे साथ लेकर चलने का, कर पायेंगे वायदा?
क्यूँ चिंता में डूबा चिंतन, निस्तेज हुई क्यूँ चेतना ?
क्यूँ मानवता निष्प्राण हुई, कब लौटेगी संवेदना?
इन प्रश्नों की शरशय्या पर, जब हुआ स्वयं से सामना
मन के दर्पण में अपना ही, चेहरा लगा डरावना