जलती जिंदा लाशें

जब 
देखती रही 
खड़ी भीड़  
गिद्धों को अपनी ही 
अस्मिता मांस नोचते 
तब मानवता तार-तार हुई।


आज
जब एक मजबूर अपनी 
पत्नी की लाश को अकेला 
कई किलोमीटर ढोता रहा     
हँसती रही  
मानवता 
अपने मुर्दे पन पर 
जमाने की आग पर 
जलती जिंदा लाशें। 


पुछती 
अपने आप से
आसान नहीं होता 
अपने कंधों पर
अपनी ही अर्थी ढोना 
अपने 
सपनों का बोझ 
पराये कंधे पर टिकाए 
झूठी शान, 
दिखावे के पीछे 
भागती भीड़ 
सभ्यता की खोल ओढ़े 
खुद अपने ही हाथों 
अपने जमीर को मार कर 
हँस 
रही है 
मानवता 
अपने मुर्दे पन पर 
जमाने की आग पर 
जलती जिंदा लाशें।
 


तारीख: 18.08.2017                                    कैलाश मंडलोंई









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