भड़क उठी हिंसा पुरज़ोर
कब मिटेंगे आदमख़ोर?
जगह-जगह लाशों की ढेर
रक्त में डूबा सांझ-सवेर
नित्य नये होते हैं जंग
लाल हुआ धरती का रंग
आग लगी यह चारो ओर,
कब मिटेंगे आदमख़ोर?
शहर-गाँव श्मशान हुए
हँसते आँगन वीरान हुए
सरल हुआ है खूनी खेल
अपना ही घर बना है जेल
टूटी मानवता की डोर,
कब मिटेंगे आदमख़ोर?
सृष्टि का अपमान हुआ
अति निष्ठुर इंसान हुआ
लुट गया है मन का चैन
जिसको देखो भींगे नैन
रक्षक हुए लुटेरे-चोर,
कब मिटेंगे आदमख़ोर?
जहाँ भी देखो चीख-पुकार
चहुँ ओर गूँजे चीत्कार
सबको है लालच का रोग
शत्रु बने हैं अपने लोग
व्यथा हृदय को दे झकझोर,
कब मिटेंगे आदमख़ोर?