मैं,तुम और तुम्हारा शहर

मैं एक रोज़ यूँ ही किसी सिलसिले से,
बहुत दूर नए एक शहर में गया था,
बहुत खूबसूरत ये मानो की जन्नत,
वहां जैसे मौजूद सब कुछ नया था..

वहां धूप शाखों पर आराम करती,
सबा में लोभानों की खुशबु बिखरती,
शज़र भी यूँ नगमा कोई गाने लगते,
हवा के कहे पर जो शाखें लहरती,

किसी एक ऐसे शज़र के तले ही,
मुझे याद है हम जो मिलते थे चुपके,
औ शरमा के तुम ज़ुल्फें पीछे थी करती,
तबस्सुम में ये होंठ खिलते थे चुपके,

हमारी मुहब्बत जो परवान पर थी,
हमारा फ़साना था हर इक ज़ुबां पर,
हम एक दूसरे में ही ग़ुम हो चले थे,
ये चाहत हमारी थी अपने गुमाँ पर,

मगर इस शहर को ये मंज़ूर न था,
मेरा रुकना इसको बड़ा खल रहा था,
इसे भी मुहब्बत तुम्हीं से थी शायद,
मुझे देख अब ये शहर जल रहा था,

मैं अहसानमंद था तुम्हारे शहर का,
मुझे इस शहर ने मिलाया था तुमसे,
मुसाफ़िर था मैं तो मुझे लौटना था,
मगर फ़िर भी ये दिल लगाया था तुमसे,

और इक दिन शहर ने कहा फ़िर ये मुझसे,
चले जाओ दूर उस से,मेरी नज़र से,
मैं लाचार करता तो आख़िर क्या करता,
चला ही गया एक दिन उस शहर से,

मगर न तो दिल से शहर ही ये निकला,
न वो प्यारा चेहरा तुम्हारा भुलाया,
औ यादों से मज़बूर हो कर मैं इक दिन
तुम्हारे शहर में ही फ़िर लौट आया....

मगर बरसों बाद अब जो आया तो देखा,
शहर था जो गुलज़ार वो मर चुका था,
सबा में थी बदबू किसी लाश जैसी,
वो पत्तों लदा हर शज़र झड़ चुका था,

शहर के हर इक कोने मातम था पसरा,
चटक धूप जो थी वो दुबला गई हैं,
शहर से परेशान हो कर ये पूछा,
ये सच है या आँखे ही झुठला गई हैं

शहर ने बताया कि उस रोज़ जब मैं,
इसे छोड़ कर के जो आगे बढ़ा था,
उसी वक़्त तुम भी न जाने कहाँ गई,
उजड़ता गया ये शहर जो खड़ा था....

शहर का भी हाल अब मेरी ही तरह था,
और उस पर भी फ़ुर्क़त का बरपा कहर था,
वो मेरी तरह से ही बेबस बहुत था,
मैं उसकी तरह एक उजड़ा शहर था....

मैं उस दिन से अब तक यहीं पर खड़ा हूँ,
नहीं जिद्दी मुझ जैसा देखा किसी ने,
बस इक बात दुहराए जाता हूँ अक़्सर,
यहाँ एक शहर था क्या देखा किसी ने...

 


तारीख: 22.03.2018                                    तन्मय ज्योति मिश्रा









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