मेरी कलम कभी-कभी
हठ करती है सच लिखने का
पर मैं अक्सर उसे
फुसला लेता हूँ
‘नीले’ की जगह चुपके से
‘काली’ दवात भर देता हूँ
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क्या पता मैं उससे या खुद से ही
छल करता हूँ
वह सच को ‘सच’ ही लिखती है
और मैं..
सच पढ़ने से भी डरता हूँ
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फिर सहसा एक विचार आता है कि
उसकी जिह्वा ही बदल दूँ
या कि लोभ दूँ चमकीले ढक्कन का
और उसकी
‘सच लिखने की आदत’ को ही ढक दूँ
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लेकिन क्या चमकीले ढक्कन से
कलम की अच्छाई बदलेगी ?
अन्यथा कलम बदलने से
क्या सच्चाई बदलेगी ?