पथिक

पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे,
टेढ़े-मेढ़े जग-जाल में, फिरता कहाँ है सांवरे,
कहाँ रही सुबहा तेरी, कहाँ है तेरी साँझ रे!
पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे।

टिमटिम चादर ओढ़कर, सोया तू पैर पसार रे,
जिस स्वप्न में रैना तेरी, क्या होगा वह साकार रे,
साकार का आकार भर, तू उठ गया पौ फटने पर,
दिन चढ़ गया, तन तरबतर, सिर हाथ रखे लाचार रे।

क्या डर गया तू धूप से, क्या भा गयी तुझे छांव रे,
पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे।।

कुछ सांस भर तू चल दिया, बाहों भर उड़ान रे,
छाले पड़े पैरों तले, न अब थके थकान रे,
सांझें तेरी सब भोर हैं, दिन-रात सब समान रे,
पकड़ी रखी तूने डगर, ले मिल गया निशान रे।

चल आगे बढ़, कुछ और चल, जो दिख रहा उसे थाम ले,
पथिक तेरा रास्ता यही, मंजिल यहाँ तेरी बावरे।।

हल्के हवा के झोंके सा तू चल दिया उसे थामने,
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, थे खड़े जहाँ सामने,
जरा के प्रकोप से, और काल के प्रवाह से,
श्वेत तू, बेजान तू, गतिहीन तू, हे राम रे!
राहें हुई गुमराह सी, गुमनाम हुए सब नाम रे,
पूंछे किसे क्या गाँव है, या शहर का कोई धाम रे,
क्यों है खड़ा पंगुबधिर, क्या हुआ तेरा अंजाम रे,
कोई काम है तेरा यहाँ, या नाकाम ही सब काम रे।

 फिर आ गया उस राह में, जहाँ से चले तेरे पाँव रे,
पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे।।
 


तारीख: 07.07.2017                                    एस. कमलवंशी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है