पुनः

सोम हो गए स्वप्न जीवन भर अमावस

पुनः झरता  एकदा  आलोक-पावस

 

जगत सीमातीत मरुस्थल-सा अनुर्वर

झाड़ियाँ हैं  ठूंठ हैं  या अस्थि-पंजर

 

स्रोत आशा के पुनः भीतर जगाएं

फिर अलक्षित क्षितिज से सन्देश आयें

 

हम हलाहल पान कर जो जल रहे हैं

खोज तो पीयूष-मधु की कर रहे

 

क्या हुआ हों पथ हमारे व्योम-विस्तृत

कर लें मन-पंछी बसेरा एक निर्मित

 


तारीख: 18.03.2018                                    राज हंस गुप्ता









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