कोई आया कचहरी में
खबर दे गया
माँ अंतिम साँसें गिन रही है
निकले घर से हम
ग्यारह बजे
दसबजिया के लिए
वो रेल भी छुक- छुक करती थी
विशाल थी
बाकी के रेल जैसी ही थी
बारह बजे एक चाचा मिले
गरमी से पिटे हुए
पसीने से नमक बनता कभी
तो आना मेरे मायके
चाचा भईया दोस्त बाबा
सबके पसीने सोख लेना
बनाना नमक बेचना लाल पुड़िये में
दो का सौ बना के
तभी घंटा बजा एक का
बच्चों ने पूछ ही दिया
“मां इसे दसबजिया क्यूं कहते हैं”
सुनाई तो रोज़ देता था उसे
आज शायद दिल पे लग गया सवाल
और जल्दी जल्दी आने लगी
आने लगी डेढ़ बजे
आज बड़ी जल्दी !
खुशी नहीं हुई
अचम्भा ज़रूर हुआ
दूरी दूर करती है तो चलता है
बुरा तब लगता है
जब ज़रिये पास लाने के बढ़ाते हैं दूरियां
हाय ! विधाता का विधान
जो अपने हाथों में नहीं
वो विधाता का विधान
जो सरकार के हाथ में है
वो भी विधाता का विधान
पहुँच गई आखिरकार मैं
केवाड़ी पर बिलख रही थीं औरतें
मै चुप रही रो भी न पाई
अपनी ही माँ के देहांत पर
आँसू तो सूख गए थे प्लैटफ़ार्म पर ही
आँखें मूँदी थी माँ ने
पर शिकन ना थी चेहरे पर ना देखने की बेटी को
शायद उन्हें यकीन था
बेटी तो आ रही होगी
रेल ने ही देर कर दी होगी