वो

कोई अपने घर से निकला
तो हज़ारो नजरें जमा हो गईं।

जान पहचान नहीं कुछ भी किसी से,
न जाने कितनों की वो आहें है, 
और कितनो की दवा हो गईं।


हम गली से निकले, किये बाजार का रुख
वो जो आ गयी सामने, मेरी राहें गुमशुदा हो गईं।


अजी, मंजिल कौन माने उन्हें, कहे कौन हमसफ़र
वो जिधर जिधर से गुजरी, पूरी कायनात कारवां हो गईं।

मत पूछो किसी से उनकी खूबसूरती कैसी,
कुछ कहेंगे जन्नत-जन्नत,
कुछ यूँ मुस्कुरायेंगे जैसे, हंसी वादियां बयां हो गईं।

संभल संभल के पड़ते हैं कदम अब हज़रत के,
जब से सुना है, पीछे पीछे शोहदों की कई सदियां तबाह हो गईं।


तारीख: 15.07.2017                                    अंकित मिश्रा









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