गिर – गिर कर जिसपर सम्भलना सीखा,
पग पग ठोकर खाकर जिसपर चलना सीखा,
चल रहा हूं आज उसी पर लेकिन
क्यो लगती हैं वो राहें अजनबी सी।
थपकी देकर जिसने मुझे सुलाया
ममता की कौर से जिसने मुझे खिलाया
है हाँथ दामन उन्हीं का लेकिन
क्यों लगती हैं वो बाँहें अजनबी सी ।
जिन सायों में खुद को महफूज़ पाया,
जिसकी ज्योति में मैंने राह बनाया ,
टकरा रही है आज़ फिर नज़रें उनसे लेकिन
क्यों लगती हैं वो आँखें अजनबी सी ।
ना हम बदले, न हालात हैं बदले,
फिर क्यों लगती ज़िन्दगी अजनबी सी ,
वक़्ते-हालात ने ना जाने क्या बदला
कि लगती हैं साँसें अजनबी सी ।