बलि – प्रथा

हर प्रकार के जीवधारियों से ,
ये धरा उन्नत है |
पर "जीव के बदले जीव",
ये कैसी मन्नत है ?

क्यूँ धर्म की आड़ में ,
लेते हो किसी के प्राण ?
क्या अब तक तुम ,
मृत्यु के भय से हो अनजान ?

किसी निरीह का रक्त बहाकर ,
खुद को भगवान के ऋण से मुक्त करते हो |
ईश्वर तो सर्वदाता हैं,
उनको बलि देकर भक्त बनने का स्वांग धरते हो |

क्या किसी माँ–बाप को ,
अपने ही संतान का खून पसंद है ?
तो तुने सोच कैसे लिया जगतपिता प्रसन्न होंगे ,
क्या तेरी बुद्धि इतनी मंद है ?

झूठे हैं वो लोग ,
जिन्होंने कही है बलिदान की कथा |
किसी निर्दोष को मारना गुनाह है ,
अमानवीय है यह बलि–प्रथा |

भगवान को चाहिए ,
अमानवीय गुणों की क़ुरबानी |
ना कि मानव का धन ,
अनाज, खून और पानी ||


तारीख: 15.06.2017                                    विवेक कुमार सिंह









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