बसंती

शीत रथ पर चुपके चुपके
बसंत आया फिर छुप छुपके !

अम्बर धरा कलियाँ तरूणाई
गा गा कर कोयल शरमाई !

यौवनता पर सूर्य है आया
आम्र पलाश मदिरा नहाया !

बह रही हवा यूँ बसंती 
गीत गा रही हो रति !

प्रेम रंग की लाली छाई 
अधरों पर व्याकुलता लायी !

धरती आकाश हैं मिलने को हैं
सुबह ही सूरज हैं ढलने को हैं !
 


तारीख: 30.06.2017                                    पीयूष झा









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है