बेमंज़िल सफर

सबकुछ पाने की चाहत में, घूम रहा मैं दर-ओ-बदर।

सुबहें होती,शामें ढलती, कटता न बेमंजि़ल सफ़र।।


ना जाने क्या-क्या खोना है,
                       ना जाने क्या-क्या पाना है,

खोने-पाने की उठापटक में, 
                      मिलता ना कुछ ये जाना है।


कभी सुनहरी धूप की किरणें,
                      कभी सिमटता छाँव का आँचल,

सबकुछ इस उलझी दुनिया का, 
                      सोचा-सा ताना-बाना है।


मेरी दुनिया खुद तक सीमित, आता न कुछ और नज़र।

दु:ख भी जाते, सुख भी आते, कटता न बेमंजि़ल सफ़र।।


पलकों के गिरने-उठने सी,
                       सपनों की आमद होती है,

नींद भी अपने फेर में लेकर, 
                       चाहत का रोना रोती है।


ये मंज़िल है,वो रस्ते हैं,
                       उलझा मैं इस ज़द में आकर,

अगली दौड़ की नीति बनाकर,
                       आँखें भी अब बंद होती हैं।


सपनों की इस गुणा-गणित में,कोई न रहती कोर-कसर।

पर कर्मभूमि के अपने रस्ते, कटता न बेमंजि़ल सफ़र।।


हमसफ़र भी मिलते हैं मुझको अब,
                           राह में यूँ ही चलते-चलते,

दूर निकल आये हैं वो भी,
                           खुद ही खुद को छलते-छलते।

उनके रोचक किस्से सुनकर,
                           उम्मीदों के दिये जल उठे,

पर जब पूँछा क्या पाया तो,
                           वो भी रह गये हाथ को मलते।


लेकिन संग जीने में खुशियाँ, उनके बिन जीने का डर।

लोग हैं आते और बिछड़ते,कटता न बेमंजि़ल सफ़र।।


इस सफ़र की अपनी ही इक मस्ती,
                           अपना ही इक गीत है,

मंज़िल भले नही हो मिलती,
                            मिलती अपनों की प्रीत है।


बातें-वादे, खोना-पाना,
                            सबकुछ एक मिथक-सा है,

कुछ और मिले तो हार है समझो,
                            प्यार मिला तो जीत है।


खुशी हो अपनों की संग में और,साथ हो उनका प्यार अगर।

हर पल दिखता है मुझको ये, कटता-सा बेमंजि़ल सफ़र।।
 


तारीख: 30.06.2017                                    प्रदीप सिंह









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