और अब , जब मैं
बालिग हो गया हूँ
सोचता हूँ कि -
सरकारें , मेरे अँगूठे
के नीचे ही, बनती हैं , बिगडती हैं
अगूँली पर लगी सियाही
भविष्य ,
तब मैं निश्चित हूँ
और तकिये की बगल में , सोचता हूँ
कि जर हो , जौरू हो , जमीन हो
गाल पर एक महीन सा
चुंबन भी जरूर हो
और मेरे भाई !
पास से गुजरने वाले को
इसका पूरा यकीन हो,
पर वो, बहुत चालाकी से मुझे
लाकर , वहां खडाकर देता है
यहां आदमी और कुत्ते के
भूूख को लेकर , एक जैसी
पूँछ है |