लोगो के पास हर चीज़ के फ़ॉर्मूले होते हैं,
पैसे बनाने के, पैसे बचाने के,
रिश्ते बनाने के, रिश्ते निभाने के.
कब कितना हँसना है, किस पर कितना भरोसा करना है, सब कुछ.
नाप – तोल के एहसास कैसे पैदा करते हैं भला?
इतनी सयानी भीड़ में खुद को बेवकूफ़ पाते हैं हम...
हमारी तरफ कोई एक कदम बढ़ता है,
तो हम तो मुस्कुराते हुए दस कदम बढ़ जाते हैं आगे...
बस काम करना आता है, वो भी दिल उसी में लगता है जिसे करने में मज़ा आए.
सिक्कों की खनक कानो में पड़ती है तो,
हमे तो साज़ सुनाई देने लगता है, हिसाब भूल जाते हैं हम...
दिल से ही सोचते हैं, और दिल फ़ॉर्मूले नही समझता.
कभी कभी उलझ जाते हैं की हम दुनिया से अलग हैं या दुनिया हमसे...
खैर जो भी हो, इतने होशियार तो हम ना बन सकेंगे.
बेवकूफ़ तो बेवकूफ़ ही सही, बस यही सोच के ज़िंदगी चल रही है कि
हम अकेले नही हैं, और भी हैं जिनको फ़ॉर्मूलों पे ज़िंदगी ज़ीनी नही आती....