जब हम न होंगे

ये रुत की दिवारे, बिखरी होंगी,
ये शाम किनारे सिमटी होंगी,
वो सुबह का बचपन भी गुम होगा,
सब शांत, गुमसुम सा होगा।
जब हम न होंगे।।

तुम यूँ ही किसी नहर किनारे,
उठा पत्थरों को,
मिला देना उन्हें लहरों से,
पर जो यादें हैं मेरी,
उन्हें कैसे भूलोगे?
इन तन्हा, अकेली, जलती, दोपहरों में,
यादें होंगी..
बस हम न होंगे।।

वो जो घर है मेरा,
घरोंदा ही तो है, सुंदर सा
यंहा देखना कहीं
गलियों में दीवारों पर,
कही मेरा निशाँ होगा
मिट्टियों में दबे,
मेरे कुछ अरमान होंगे,
वही..
कुछ अधूरे से
कुछ पुरे से,
सब होगा
बस.. हम न होंगे।।

और दूर कहीं, आँखों में
इंतज़ार की इक लौ
यादों की बरसात में जल रही होगी,
खुली बाहों में उम्मीद,
झुके चेहरों में मेरा ही..
मेरा ही इंतजार होगा,
क्या माफ़ कर दोगे हमे??
जब हम न होंगे।।
             


तारीख: 20.06.2017                                    अंकित मिश्रा









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