जननी

                      तू ही क्यूँ हर कष्ट है सहती,
            क्यूँ है सुनती तू ही ताने?
हर परीक्षा पार क्यूँ करना,
           प्रमाण  मांगते हैं मनमाने।।

तेरे लिए क्यों नियमावली,
          तेरे लिए ही लक्षमण रेखा,
आदिशक्ति तू, प्रेम का सागर,
          तुझ पर बरसे लांक्षन के मेघा!!

कठिन तपस्या, 
     कही किसी का घर बसाया ।
सर्वस्व् छोड़कर,
       उजड़े को भी स्वर्ग बनाया।।

अनायास ही अग्नि परीक्षा,
       विदित है पावन कण मात्र न कलुषित|
मोलभाव तेरे मनोभाव का,
        करता नहीँ क्या तुझको  विचलित??

हर कदम क्यूँ त्याग तेरे, 
         क्यूँ निर्जला सिर्फ तू है रहती?
करुण दया बात्सल्य भाव से,
          फिर भी निर्मल अविरल है बहती!!

कैसे क़र्ज़ उतारूँ जननी,
      अगणित तेरे एहसानों का,
विश्वास मुझे एक मात्र तू ईश्वर,
     अंत है निश्चित कुंठित कुविचारों का।।
 


तारीख: 20.10.2017                                    ऋतुल तिवारी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है