वो काली सुबह भी कितनी भयानक थी,
आंखें खोलके खड़ी थी,
एक उन्माद लिये,
कुछ विभत्सय होने वाला है जैसे।
जो रोज होता था आज बंद था,
ना पंछियों की चहचहाहट थी,
भौकना भी बंद था कुत्तों का,
ना ही कोइ मोटर कार थी सड़क पर।
दरवाजे पे दस्तक हुई,
पूछा कौन है?
तेरी मौत जवाब आया साथ में खिलखिलाहट भी,
दरवाजा खोल दिया मैंने बेझिझक,
इससे बुरा संदेशा भी आ सकता था।
कहां थे पिछली रात?
किससे मिलने गये थे?
घर पे ही था सरकार,
और कहां जाऊँगा।
हाह। तुम कुछ और बोल रहे,
दोस्त कुछ और,
घरवाले तो तीसरा ही राग अलाप रहे।
ये इत्ती कहानियाँ सुनाकर हमको,
बेवकूफ बना रहे?
ध्यान नहीं दिया मैंने,
आज मेरी बारी है शायद।
घरवाले तो शामिल थे,
पता था,
मगर यहां तो दोस्त भी कमीने निकले।
खैर प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?
मुर्दे की जान क्या?
निकलना है मुझे इस घुटन से,
लेना है एक बेफिक्र सांस,
आजादी वाली,
बदलना है मुझे खुद को सबसे पहले।
मजाक लगी मेरी बातें उन्हें,
झूठा, कायर, मक्कार कहा।
लटका दुंगा इसी वृक्ष से,
अगर सच ना बोला तो।
कितना हठी है,
कोई मौत कोमजाक में लेता है भला।
दायें और बायें खड़े थे,
आगे और कुछ पीछे भी,
सजा मेरी निश्चित थी,
गुनाह सुनिश्चित करलें बस।
मैं भी मिल सकुंगा अपने दोस्तों से,
जिनका हालचाल मैंने ही बताया था इन्हें,
वहां मिल बैठके पत्ते खेलेंगे,
जानेंगे उस रात हम कहां थे,
और वहां हम झूठ नहीं बोलेंगे।