माँ तुम अकेली हो न?
क्या करती हो तुम पुरे दिन,
क्या राह देखती हो मेरा?
या सो जाती हो उस कोने वाले कमरे में जाकर,
ताकि सारा दिन बीत जाये।
माँ तुम बहुत अकेली हो।
जब भी कभी आँखे खुलती है तुम्हारी,
और दोपहर का सुलगता आँगन,
तुम्हे और अकेला कर देता है,
क्या रोती हो तुम?
माँ तुम बहुत अकेली हो।
या वंही छाँव में बैठ कर,
चावल के कंकडों में से,
हमारी यादें चुनती हो,
और बाँध लेती हो उन्हें आँचल में।
माँ तुम बहुत अकेली हो।
क्या तुम उन कमरो में जाती हो?
जहाँ हम पांचो होते थे?
क्या वो किशमिश की शीशी भरी है अबतक?
क्या वो आम का आचार खत्म हुआ?
ये सब तुम्हे रुलाते तो नहीं न माँ?
माँ तुम बहुत अकेली हो।