मत बनो इतना अभिमानी


जब निष्कपट निज कर्म करो तब बनो स्वभिमानी.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
दो शब्द कहूँ-कुछ भी न कहूँ, खुद हो उत्तम ज्ञानी.
यत्न करो-अपना गुरुत्व पुनः प्राप्त करो, आँख में भर लो पानी.


मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
ईश्वर ने तुम्हें दी कीर्ति, आशीष मिला कि तू बन ज्ञानी.
कबीर दोहे ने 'सदैव देव के आगे रहना' वह मान भी दिलाया ही.
अंकित किया गुरु-महत्व ग्रन्थों ने, अब छोड़ो नादानी.
पर उलझ गए उस रूप में क्यों, खुद ही को समझ पड़े अति दानी?
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.


बच्चे माता से नवजीवन पाते औ पिता से सदैव सुरक्षा.
बहु विधि बहुत सुख बरसे, पर सब तज आते पाने कुछ शिक्षा.
भाई-बंधु का असीमित सहारा, पर क्यों मांगे वह भिक्षा?
कुछ शर्म करो, निष्कपट निज कर्म करो,दो उसको उसकी दीक्षा.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.


देव साधक का संशय हरते औ महिमामंडित गुरु का करते,
प्रथम गुरु हैं माता-पिता ही, पर स्वयं ही वह क्यों समझाते-
कि जीवन में कुछ करना है तो, सदैव शिक्षक का सम्मान करो.
शीश झुका कर श्रद्धा से, प्यारे बच्चों नित्य उन्हें प्रणाम करो.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.


वह बाल-राधा-गोविन्द है, पर दर तेरे आ फैलता है अपनी झोली,
कहता-'ज्ञान की कुछ भिक्षा पाकर, सत्य-पथ पर चलना सीखूँ, 
ज्ञान दीप की ज्योति जलाकर, जीवन के संघर्षो से लड़ना सीखूँ.  
मानवता निज जीवन में भर न्याय की नयी-नवेली मंजिल बना दूँ.'
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.


लेकिन तुमने दिये इस जगत को बहुत से प्रपंचों का घात-प्रतिघात.
करते रहे खिलवाड़, कर्तव्यचुत हो उंघते रहे तुम कुर्सी पर बैठकर.
अनजाने ही में तुम रुखसत हुए गुरु पद से शिक्षक मात्र के स्तर तक.
वह तुम्हें देखता रहा और तुम न कुछ ढूंढते रहे नींद में बेसुध होकर.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.


नींद खुली तो उस हलधर, भूधर, भावी प्रतिपालक को समझा,
ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और किसी अबोध को तो माना कीड़ा.
यदि बात हो श्रुति-ग्रन्थ की, जब प्रभु रचे रुचिर सृष्टि की रचना,
तब प्रकृति हँसी देख निज नादानी, सुन उपहास उपजे तब ज्ञाना.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.


पर उलझ गए उस रूप में क्यों, स्वयं ही को विज्ञानी समझ?
यदि होती है शुरुआत और अंत भी ज्ञान का तुझसे ही अब.
इस धीर-गंभीर प्रकृति की एक अधीर अति कोमल पुष्प का,
ले संभाल न उपहार स्वरूप एक अति-तुच्छ व्यंग्य-बाण तब.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
 


तारीख: 27.08.2017                                    प्रदीप कुमार साह









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है