मुफ़्त के सपने

उड़ने को चाहता हूँ खुला आसमान,
पर नसीब ने खिड़की भर ही दिया है …

घर से निकलता हूँ सुबह, तो जी चाहता है
अनजान रस्ते पे चल पडूँ, किसी नयी छाँव के नीचे
सूरज को ढलते देखूँ.

पर घड़ी पहने हुए, डब्बा पकडे मेरे हाथ मुझे खींच कर
धकेल देते हैं उसी राह पर,

जहाँ से शाम को फिर लौटना होता है,
थके हुए, मुर्दा महसूस करते हुए.

रात को सामने रोटी रखी देखता हूँ तो लगता है,
इस के लिए ही तो घिसता हूँ सारा दिन …
मुस्कुरा के पेट भर लेता हूँ.

पर सोते वक़्त, आँखों में रंगीन सपने ही भरता हूँ,
तसल्ली है कि कम-से-कम ये तो मुफ्त हैं.


तारीख: 29.06.2017                                    ऋतु पोद्दार









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