पत्थर कर डाला

शीशे जैसे दिल को मेरे, दुनिया ने पत्थर कर डाला।
हरी-भरी धरती को बहते, लावे ने बंजर कर डाला।।

आशाओं के पंख लगाकर, स्वप्न-गगन में हम विचरे थे।
नींद खुली तो पाया हमने, सारे स्वप्न टूट बिखरे थे।।
फूलों की बगिया को किसने, हाय! तितर-बितर कर डाला। 

सावन की रिमझिम बौछारें, किसको नहीं सुहाती होंगी?
झूले, कोयल, फूल और कलियाँ, किसके मन नहीं भाती होंगी?
लेकिन मेरी मनवीणा का विकृत हर एक स्वर कर डाला।

इक-इक कर विश्वास टूटते, किर्च-किर्च मन-दर्पण होता।
वह ही छुरा घोंपता पीछे, जिसको यह मन अर्पण होता।।
आघातों के हालाहल ने, जीवनसुधा जहर कर डाला।


तारीख: 22.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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