पुरुष की दृष्टि में
स्त्री एक व्याकरण के अलावा
और कुछ नहीं है ।
वह किसी के लिए संज्ञा है ।
मात्र व्यक्ति, वस्तु या स्थान है ।
किसी के लिए अलग अलग
प्रकार से प्रयोजित सर्वनाम है ।
असँख्यों के अनंत विशेषण है ।
किसी के लिए परिमाणवाचक,
तो किसी का परिणामवाचक है ।
कितनों के लिए वह क्रिया की
अथक अपरिमित परिभाषा है ।
तो किसी की क्रियाविशेषण है ।
स्त्री रस है, छंद है, अलंकार है ।
किसी के जीवन का प्रत्यय है ।
किसी के जीवन का उपसर्ग है ।
स्त्री समाज का समास है ।
किसी के जीवन का कारक,
तो किसी का अव्ययी भाव है ।
आधी अधूरी व्याकरण से बनी
एक भाषा के रुप में
स्त्री को पढ़ा जाता है ।
फिर ये कहा जाता है
स्त्री को समझना मुश्किल है ।
निःसंदेह मुश्किल होगा ।
क्योंकि अधूरा ज्ञान
पूर्णता को कभी पा नहीं सकता ।
और व्याकरणीय त्रुटियों के साथ
पढ़ी गई स्त्री को भी
उसकी पूर्णता में कभी
कोई समझ ही नहीं सकता ।