तुझे कोटिश: प्रणाम

पढ़ने लिखने से
चिंतन मनन से
जब-जब मन रूठा,
बस यही ख़याल
दिलों-दिमाग़ पर
हावी हुआ.......

बस तब क्या था
सारी रचनात्मकता फ़िज़ूल लगीं.
नफे नुकसान से बँधी
इस ज़िंदगी में
निर्मम
'गिव-टेक' के सिद्धांत पर,
टॅंगी इस ज़िंदगी पर.
पहले दया आई,
फिर हँसी आ गई____.
दूसरे ही क्षण रोना आ गया___.

कुछ देर बाद ये रुलाई
एक गंभीर खामोशी में बदल गयी.
इन्ही अवसादो के बीच
मैने करवट बदली
तभी----

मेरे आसपास फैला,
विराट विज्ञापन भरा,
यह संसार नज़र आ गया.
बाज़ार का यह इंद्रजाल,
विज्ञापन के फौलादी कंधों पर टिका,
बार-बार अपनी ओर खींच रहा था.
चुंबक की तरह
वह अपने मजबूत पंजो से
जकड़ लेता था मेरा शरीर को,
कुन्द कर देता मेरी संवेदना को,
जिससे उबरने की पुरज़ोर कोशिशों में,
मेरा चेहरा तमतमा उठा था,
रोमांचित हो गया था पूरा बदन,
नसे खिच गयी थी,
प्राण व्याकुल हो उठे थे,
पर मैं, चाहकर भी
कुछ कर ना सका.
अपने परिवेश के प्रति
मुखर विरोध कर ना सका.

बाज़ार की शक्तियों के सामने
मेरा प्रतिकार फुस्स हो गया.
कुछ दिन ताना रहा
फिर समझौता कर लिया,
धीरे-धीरे एक चिंतक
उपभोक्ता बन गया.
नित नये उपभोग करते हुए
मैं भी बाज़ार का हिस्सा बन गया.

किंतु! एक अंतराल के बाद
उपभोक्ता का यह नशा,
उतरने लगा है
और फिर से डूबरा मैं,
चिंतन मनन में लग गया हूँ.
पढ़ने लिखने का यह शौक,
व्यसन सा बन गया है.
मेरे संस्कार, मेरी संवेदना, मेरी आत्मा
बार-बार मुझे टूटने से बचा लेती है.
हे, मन के सद् प्रेरक भगवान
तुझे कोटिश: प्रणाम..


तारीख: 20.06.2017                                    निशा कान्त त्रिपाठी









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