अश्रु पलकों में समेटे
नींद आँखों में समाये
रात की खामोशियों में
मैं यहीं सोया हुआ था
भावना बाशक्ल से बेशक्ल
होती जा रही थी, कि तभी
इक स्वप्न ने मुझको ओढ़ाई
अपनी एक सर्द चादर
और फिर जीवंत होकर
प्रश्न तैरे कुछ हवा में
तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो ?
तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो ?
अब कहाँ खोजूं तुम्हें मैं
अब कहाँ तुमको मैं पाऊं
अब किसे आवाज़ दूँ मैं
और अब किस ओर जाऊं
तुम अचानक से गए
दिल की हज़ारों पर्त पीछे
एक ग़र आहट करो तो
सामने अपने ले आऊँ
झूठ ही तुमने कहा था
‘’मैं जहाँ हूँ, तुम वहां हो’’
तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो ?
तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो ?
रोकता हूँ अब मैं खुद को
पर तुम्हारी याद की इस
धार में बहता चला हूँ
देखता हूँ आज खुद को
मैं विरह की इस चिता में
हर घड़ी, हर पल जला हूँ
अब प्रतीक्षित है मुझे
इक और मेरा जन्म और तुम
और तुम्हारे प्रेम, मेरे प्रेम का
संगम जहाँ हो
तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो ?
तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो ?