तुम्हारा ये शहर

तुम्हारा ये शहर...

इसे जब भी मैं देखता या सुनता हूँ,
ऐसा लगता है जैसे इस शहर की हर गली हर दरवाजा, 
हर बाजार, और वो बड़ा सा लोहे का पुल।
ये सबकुछ मैंने तुम्हारी आँखों से देखा है।

और तुम जानते हो इसे देख कर मैंने कैसा महसूस किया है हर बार?
वो हर बार जब भी तुमसे मिले बिना गुजर गया मैं इस तरफ से,
वो हर बार जब तुम्हे मेरे आने की भनक भी न लगी,
वो हर बार जब मैं उस चुनरी वाले गमछे से मुँह ढककर निकल गया।

मैंने आज एक बच्चे को देखकर अपनी और उसकी व्यथा एक सी पायी है,
जो खड़ा था मेले में अपने पिता की कानी ऊँगली थामे, 
और देख रहा था एकटक उस निले गुब्बारे को 
जो की वो चाह कर भी नहीं पा सकता था।

शायद उसे पता चल चूका था उ
सके पिता की जेब में जो सिक्के खनक रहे हैं
वो असल में जंग लगी चाभियाँ हैं 
जिससे शायद पुरे मेले में पैसे की कमी महसूस न हो।

तुम्हारा ये शहर।


तारीख: 22.06.2017                                    अंकित मिश्रा









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