ये भड़का हुआ दंगा

ये भड़का हुआ दंगा
दिखाता है नाच नंगा

इंसान को मार जाता है
कौम को छोड़ जाता है

जब भी आता है
बहुत कुछ छोड़ कर जाता है
जलते हुए पिंजरों के अंश
दिलों मे सुलगते अंगारो के दंश

सुबकती अबलाओ के नोचे हुए शरीर
सड़कों पर कुचले बालकों की पीड़
जहां तहां उजड़े हुए आशियाने
ना भूलने वाले खौफनाक अफसाने

चूल्हे पर हाँडी में उफनता भात
आंगन में उलटी रखी खाट

लपटों में नहाते सुनहरे खेत
रिसते कदमों से लहुलुहान होती रेत
खेतों मे पकती नफरतों की फसल
छीनकर ले जाता है कितनों का कल

ख़त्म हुए भाईचारे की सौगाते
सौप कर जाता है जाते जाते

मंदिरों की पताका भी यहीं रह जाती हैं
मस्जिदों की अट्टालिका यहीं रह जाती है
इंसानो में गिद्धों को उत्पन्न कर जाता है
रुह को भीतर तक खोखला कर जाता है

ये भड़का हुआ दंगा
दिखाता है नाच नंगा

जब भी आता है
इंसानियत को शर्मसार कर जाता है। 


तारीख: 22.09.2017                                    किरण शर्मा









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