यूँ रातों में बैठा तन्हा,
अक्सर ख़ामोशी को सुनता हूँ।
जब घटाएं काली-सी छा जाती हैं,
जब ध्वनियां थम-सी जाती हैं,
तब फैले-पसरे सन्नाटे में,
वह ख़ामोशी आ जाती है।
तब ख़ामोशी के साथ बैठकर,
यादों के गीतों को धुनता हूँ।
यूँ रातों में बैठा तन्हा,
अक्सर ख़ामोशी को सुनता हूँ।
ये ख़ामोशी कुछ खामोश नहीं,
दुःख दर्द दबाये रहती है।
सृष्टि की सारी व्यथा-कथा,
भीतर छुपाये रहती है।
पर मैं उससे बातें करता,
वे व्यथा-कथाएं पढ़ता हूँ।
यूँ रातों में बैठा तन्हा,
अक्सर ख़ामोशी को सुनता हूँ।
जीवन भर की सारी सीखें,
यह ख़ामोशी दे जाती है।
रुदन से प्रारंभ ज़िन्दगी,
अंत सिर्फ ख़ामोशी रह जाती है।
ज़िन्दगी के नए रास्ते,
इस ख़ामोशी में चुनता हूँ।
यूँ रातों में बैठा तन्हा,
अक्सर ख़ामोशी को सुनता हूँ।
डरता था इस ख़ामोशी से,
नासमझ था, नादान था।
सांसारिक माया में लिपटा,
खुद पर बहुत गुमान था।
पर अब भूतकाल के धागे में,
पछतावों के मोती पिरोता हूँ।
यूँ रातों में बैठा तन्हा,
अक्सर ख़ामोशी को सुनता हूँ।
बस अब गम हैं, चिंताएं हैं,
भविष्य से अपेक्षाएं हैं।
अब न अपना कोई पास है,
सिर्फ इस ख़ामोशी का साथ है।
जीवन के इस वीराने में,
ख़ामोशी से आलिंगन करता हूँ।
यूँ रातों में बैठा तन्हा,
अक्सर ख़ामोशी को सुनता हूँ।