आईआईटी की फीस वृद्धि के राजनैतिक निहितार्थ

आईआईटी में पढ़ने वाले छात्रों को अब दोगुना फीस देनी होगी जो 90 हजार से बढ़कर दो लाख हो जाएगी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यह फैसला आईआईटी काउंसिल के सिफारिश पर लिया है.

आपको याद दिलाते चले कि कुछ दिन पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई-लिखाई के लिए दुनियाभर में माने जाने वाले IIT में तकरीबन 300 फीसदी फीस बढ़ाने के सुझाव को संसदीय स्थायी समिति ने स्वीकार कर लिया था. इस सुझाव में IIT की फीस 90,000 से 3 लाख रुपये करने के लिए कहा गया था.

सरकार ने एक तरफ तो फीस भी बढ़ा दी है तो दूसरी तरफ आलोचना से बचने के लिये कुछ की फीस माफ करने का वही पुराना पैंतरा अपनाया है जो अब तक सरकारें करती आई हैं. सरकारी दयालुता दिखाते हुए सरकार ने 3 लाख फीस बढ़ने की अनुमति न देकर जनता का पूरा ध्यान रखा है. सरकार अच्छी तरह से जानती है कि दोगुनी फीस वृद्धि का फरमान जारी करने के बाद भी ज्यादा शोर शराबा होने की कोई उम्मीद नहीं है और ऐसा ही हुआ.

IIT

शिक्षा जगत में हो रहे इस बदलाव और रूपांतरण को समझने के लिए इसकी थोड़ी गहराई से जाँच पड़ताल करनी पड़ेगी. वैश्वीकरण के नाम पर नई शिक्षा नीति को लागू किया गया है. जिस पर सभी राजनीतिक पार्टियों की साझा सहमति बहुत पहले ही उजागर हो चुकी है अब तो केवल इन नीतियों के परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं. वैसे भी IIT की शिक्षा प्राप्त करने वाले गरीब छात्रों की संख्या लगातार घट रही है. फीस वृद्धि के इस फैसले ने अमीर और गरीब की खाई को और बढ़ा दिया है.

शिक्षा के द्वारा राजनीतिक हित को साधने का कारोबार शासक वर्ग हमेशा करता रहा है. सरकारें जो भी शिक्षा, साहित्य, कला और संस्कृति में बदलाव करती हैं उसके दो ही अर्थ माने जाने चाहिए. पहला: वर्तमान सत्ता को किसी भी प्रकार से बनाये रखना और दूसरा: आर्थिक हितों को सुरक्षित करना.

भारतीय राजनीति आज नये दौर से गुजर रही है जिसमें छात्र राजनीति का उभार साफ दिखाई दे रहा है. जिसमें देशद्रोह के आरोप में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) आईआईटी, मद्रास फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति का विवाद, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में तीन दलित छात्रों का निष्कासन और रोहित वेमूला की आत्महत्या ने तमाम बड़ी राजनीतिक पार्टियों के छात्र संगठनों को सरकार के खिलाफ लामबंद होने का मौका दिया है. इन शिक्षण संस्थाओं के राजनीतिक इतिहास को सभी अच्छी तरह से जानते हैं. इसीलिए तमाम सरकारें समय-समय पर गरीब छात्रों को शिक्षा से वंचित करने का काम फीस बढ़कर भी करती हैं.

फीस बढ़ाते समय सरकार यह अच्छी तरह जानती थी कि 90 के दशक से ही छात्र संगठनों को पहले ही कमजोर किया जा चुका है. आज भी देश के आधे से ज्यादा विश्वविद्यालयों - हिमाचल प्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु में छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए। जबकि वर्ष 2005 में लिंगदोह कमेटी ने छात्रसंघ चुनाव करवाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की तय की जा चुकी है।

भारतीय राजनीति कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को कभी का त्याग चुका है. सरकार शिक्षा की अपनी पूरी जिम्मेदारी जनता पर थोप रही है. यह कदम शिक्षा को देशी विदेशी संस्थानों के हाथों में सौंपने की एक सुनियोजित योजना है जिसे बहुत पहले ही दलाल राजनीति द्वारा स्वीकार किया जा चुका है. सरकारी संस्थाओं की फीस बढ़ाकर और देशी विदेशी निजी संस्थानों को शिक्षा की तमाम सुविधाएँ देकर- शिक्षा, शिक्षक और शिक्षण को बाजार के हवाले करके देशी-विदेशी निजी संस्थाओं को पैर जमाने के अवसर देना इनका असली मकसद है .

इस सम्बन्ध में एक बात गौर करने वाली यह है कि 90 के दशक से लेकर आज तक मध्यम वर्ग को बहुत सारी सुविधाएं देकर सरकार ने अपनी ओर मिला लिया है. क्योंकि फीस की वृद्धि का सबसे ज्यादा विरोध मध्यम वर्ग से आने वाले छात्रों द्वारा ही होता था. आज यह वर्ग 2 लाख ही नहीं 10 लाख देने में सक्षम है इसीलिए ये मुद्दा देश की राजनीति को अधिक प्रभावित नहीं करेगा. लेकिन गरीब परिवार से आने वाली सभी संभावनाओं को यह जरूर समाप्त कर देगा.

प्रबुद्ध लोगों की बड़े पैमाने पर इस तरह के सवालों पर चुप्पी और बढ़ती आर्थिक, सामाजिक गैर-बराबरी समाज को नए संघर्ष की ओर धकेल रही जिससे बच पाना संभव नहीं है


तारीख: 07.06.2017                                    आरिफा एविस









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