युग प्रवर्तक : महात्मा गांधी

(गांधी जी की पुण्यतिथि पर विशेष)

भारतभूमि को रत्नगर्भा कहा जाता है। रत्नगर्भा होने का अभिप्राय केवल यह नहीं है कि इस धरती में अनेक मूल्यवान रत्न छिपे हुए हैं, बल्कि इस धरती ने ऐसे महापुरुषों को जन्म दिया है जिन्होंने दिग-दिगन्त में अपनी कीर्ति पताका फहराकर भारतभूमि का नाम विश्वपटल पर चमकाया है। ऐसे ही महापुरुषों में महात्मा गांधी का नाम आधुनिक युग में सर्वज्ञात है। गांधी जी को भारतीय स्वाधीनता संग्राम में योगदान के लिए ही याद किया जाता है, ऐसा नहीं है, बल्कि गांधी विचारधारा, उनके सत्याग्रह एवं अहिंसावाद ने उन्हें विश्वपूज्य बनाया है।

भारतीय राजनीति में गांधी युग का आरंभ सन् 1915-16 से होता है, जब वे दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए और भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों के साथ उनके संघर्ष में जुट गये। गांधी जी ने सत्याग्रह का जो अचूक मंत्र दक्षिण अफ्रीका के लोगों को दिया वह विश्व के लिए वरदान सिद्ध हो गया। विशेषकर भारत के लिए तो वह अमृततुल्य बन गया। देखते ही देखते गांधी जी के सत्याग्रह और अहिंसा का बोलबाला सम्पूर्ण विश्व में हो गया। ऐसा नहीं है कि सत्य और अहिंसा पहले नहीं थे, अपितु जैन धर्म का आधार ही अहिंसा है किन्तु महात्मा गांधी ने इन दोनों को अपने जीवन में प्रयोग करके उसे कसौटी पर परखा और फिर विश्वकल्याण के लिए अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य बनाया। उन्होंने स्वयं कहा था कि “सत्य और अहिंसा कोई नए नहीं है, ये उतने ही पुराने हैं जितने वन और पर्वत हैं।“

गांधी जी ने सत्य और अहिंसा को अपने जीवन में ऐसा उतारा कि उनका सम्पूर्ण जीवन ही सत्य और अहिंसा की प्रयोगशाला बन गया। स्वयं गांधी जी ने भी कहा ÑèÑèहै, “सत्य मेरा साध्य है और अहिंसा मेरा साधन।“ इसीलिए उनकी आत्मकथा का शीर्षक भी सत्य के प्रयोग है। सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर गांधी जी ने एक ऐसी विचारधारा विश्व को दी कि पूरा युग ही उनके पीछे चल पड़ा। कवि सोहनलाल द्विवेदी ने सहर्ष उदघोष किया—

चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।
उठ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गए कोटि दृग उसी ओर।।

महात्मा गांधी केवल व्यक्ति नहीं हैं। वह एक पूरी विचारधारा हैं, जीवन शैली हैं और सर्वांगपूर्ण दर्शन हैं। यही कारण है कि कालान्तर में ‘गांधी’ एक उपाधि बन गई और खान अब्दुल गफ्फार खाँ को ‘सीमान्त गांधी’ तथा नेलसन मंडेला को ‘अफ्रीकी गांधी’ कहा जाता है।

Mahatma Gandhi

वर्तमान समय में जबकि नैतिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास हो रहा है, गांधी जी के विचारों की बहुत प्रासंगिकता है। गांधी जी का महत्त्व उनके दार्शनिक विचारों से और भी बढ़ जाता है। आधुनिक भारतीय दर्शन एवं व्यावहारिक दर्शन के अन्तर्गत गांधी-दर्शन सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वसिद्ध है। उसके श्रेष्ठ होने के पीछे उसकी सार्वभौमिकता है। गांधी दर्शन के प्रमुख चार तत्त्व हैं—आध्यात्मिकता, नैतिकता, राजनीति एवं रचनात्मकता।

आध्यात्मिक दर्शन के अन्तर्गत गांधी जी ब्रह्म, जीव, जगत, माया और मोक्ष को दीनदुखियों की सेवा से प्राप्त करने की कुशलता दिखाते हैं, वहीँ दरिद्रनारायण की उपासना से वे प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का दर्शन करते हैं। सेवा को ही मोक्ष का द्वार मानते हैं। 

अपने नैतिक दर्शन के माध्यम से वे सत्य बोलना, सदाचरण, अहिंसाव्रत, शान्तचित्त रहना एवं जनसेवा में ही अपना जीवन समर्पित कर देने को ही जीवन का ध्येय मानते हैं। अपने नैतिक दर्शन को गांधी ज ने अपने जीवन का आधार बनाया और अपरिग्रह व्रत धारण कर सादा जीवन और उच्च विचार, त्याग, परोपकार आदि को आत्मसात् करके अपनी दिनचर्या में समाहित कर लिया। 

राजनीति में महात्मा गांधी बहुत सफल न हो सके। उसका कारण यह था कि वह सन्त हृदय व धार्मिक प्रवृत्ति के थे और राजनीति के दाँवपेंच, छल-प्रपंच, कपट, झूठ मक्कारी आदि को समझ न सके और न ही उन जैसा सात्विक व्यक्ति इन्हें स्वीकार कर सकता था। फिर भी भारतीय जनों को शोषण और अत्याचारों से मुक्त कराने हेतु धरना, भूख हड़ताल, मौन, असहयोग आदि अहिंसात्मक अस्त्र दे ही दिया। यही कारण था कि जब वे अंग्रेजों की कुत्सित राजनीति से त्रस्त हो जाते तो मौन या अनशन पर बैठ जाते। उनके इक्कीस दिवसीय आमरण अनशन से तो सम्पूर्ण विश्व विचलित हो गया था। 

गांधी जी की दार्शनिकता का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उसकी रचनात्मकता है। अपनी रचनात्मक विचारधारा के कारण गांधी-दर्शन सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक दर्शन माना जाता है। चरखा, खादी, श्रम, स्वच्छता आदि उनके रचनात्मक दर्शन के ही अंग हैं। अपने रचनात्मक दर्शन को व्यवहार में लाने के लिए ही महात्मा गांधी ने वर्धा आश्रम और साबरमती आश्रम की स्थापना की जहाँ वे चरखा चलाते, सफाई कार्य करते, सूत कातते और प्रायः सभी कार्य स्वयं करते थे। खादी आन्दोलन देने के पीछे भी उनका यही मंतव्य था कि भारत की गरीब जनता का तन ढँक सके। 

2 अक्टूबर को पूरे विश्व में गांधी जयन्ती मनाई जाती है किन्तु गांधी जी की जयन्ती मनाना तब सार्थक होगा जब हम उनके जीवन-दर्शन तथा उनकी विचारधारा को आत्मसात् करें। जयन्ती केवल मनाएँ नहीं बल्कि मनन करें, क्योकि विचार सदैव मननीय होते हैं। स्वयं गांधी जी ने भी कहा था, “गांधी मर जाएगा लेकिन गांधीवाद जीवित रहेगा।“ उनका यह कथन आज सत्य सिद्ध हो रहा है, भले ही उसे ‘गांधीगीरी’ का नाम दे दिया गया हो।

अपनी वैज्ञानिक मेधा और प्रयोगों से विश्व को चमत्कृत करने वाले अल्बर्ट आइंस्टाइन ने तो यह तक लिखा कि “आने वाली पीढ़ी बहुत मुश्किल से विश्वास करेगी कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर था।“ फ्रांसीसी लेखक रोमां रोला ने भी लिखा था, “.....जब मैं गांधी का स्मरण करता हूँ तो मुझे जीसस क्राइस्ट की याद आती है।“

सच में, गांधी जैसा युगपुरुष कई युगों में एकबार ही जन्मता है, जो पीड़ित-शोषित जनता को पोषित करता है, शान्ति प्रदान करता है, उनके दुःखों को हरता है और सम्पूर्ण मानवजाति के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करके हँसते हुए चला जाता है। ऐसे महान व्यक्तित्व को हमारा शत-शत नमन।


तारीख: 07.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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